कल्पतरु पाठ ‘वेतालपंचविंशति’ नामक प्रसिद्ध कथा संग्रह से संकलित हैं, इस पाठ में मनोरंजन एवं आश्चर्यजनक घटनाओं के द्वारा जीवन मूल्यों का निरूपण किया गया है। इस पाठ में जीमूतवाहन के घर के आंगन में पूर्वजों द्वारा आरोपित कल्पवृक्ष से सांसारिक सुखों को न मांगकर संसार के सभी प्राणियों के दुखों दूर करने का वरदान मांगता है।
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अस्ति हिमवान् नाम सर्वरत्नभूमिर्नगेन्द्रः । तस्य सानोरुपरि विभाति कञ्चनपुरं नाम नगरम् । तत्र जीमूतकेतुरिति श्रीमान् विद्याधरपतिः वसति स्म । तस्य गृहोद्याने कुलक्रमागतः कल्पतरुः स्थितः । स राजा जीमूतकेतुः तं कल्पतरुम् आराध्य तत्प्रसादात् च बोधिसत्वांशसम्भवं जीमूतवाहनं नाम पुत्रं प्राप्नोत् । स महान् दानवीरः सर्वभूतानुकम्पी च अभवत् । तस्य गुणैः प्रसन्नः स्वसचिवैश्च प्रेरितः राजा कालेन सम्प्राप्तयौवनं तं यौवराज्येऽभिषिक्तवान्। यौवराज्ये स्थितः स जीमूतवाहनः कदाचित् हितैषिभिः पितृमन्त्रिभिः उक्त:- “युवराज! योऽयं सर्वकामदः कल्पतरुः तवोद्याने तिष्ठति स तव सदा पूज्यः । अस्मिन् अनुकूले स्थिते शक्रोऽपि नास्मान् बाधितुं शक्नुयात्” इति ।
सरलार्थ
सब प्रकार के रत्नों से युक्त हिमालय नामक पर्वतराज है। उसके चोटी पर एक कञ्चनपुर नामक नगर था। वहाँ कोई जीमूतकेतु नामक शोभासम्पन्न विद्वानों का स्वामी रहता था। उसके घर के बगीचे (बाग) में वंश-परम्परा से रक्षित एक कल्पवृक्ष था। राजा जीमूतकेतु ने उस कल्पतरु की आराधना करके उसकी कृपा से बोधिसत्व के अंश से उत्पन्न जीमूतवाहन नामक पुत्र को प्राप्त किया। जीमूतवाहन महान् दानवीर और सब प्राणियों के प्रति दयालु था।
उसके गुणों से प्रसन्न होकर और मन्त्रियों द्वारा प्रेरित होकर उस राजा जीमूतकेतू ने कुछ समय बाद जवान हुए उस जीमूतवाहन का युवराज के पद पर अभिषेक कर दिया। युवराज रहते उस जीमूतवाहन को एक बार उसका भला चाहने वाले और पिता समान मन्त्रियों ने कहा-“युवराज! तुम्हारे बगीचे में जो सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष खड़ा है, वह हमेशा आपके द्वारा पूजनीय है। इसके अनुकूल रहते इन्द्र भी हमें बाधा नहीं पहुँचा सकते।”
एतत् आकर्ण्य जीमूतवाहनः अन्तरचिन्तयत्-“अहो बत! ईदृशममरपादपं प्राप्यापि पूर्वैः पुरुषैरस्माकं तादृशं फलं किमपि नासादितं किन्तु केवलं कैश्चिदेव कृपणैः कश्चिदपि अर्थोऽर्थितः । तदहमस्मात् मनोरथमभीष्टं साधयामि” इति। एवमालोच्य स पितुरन्तिकमागच्छत् । आगत्य च सुखमासीनं पितरमेकान्ते न्यवेदयत्-“तात! त्वं तु जानासि एव यदस्मिन् संसारसागरे आशरीरमिदं सर्वं धनं वीचिवच्चञ्चलम् । एकः परोपकार एवास्मिन् संसारेऽनश्वरः यो युगान्तपर्यन्तं यशः प्रसूते । तदस्माभिरीदृशः कल्पतरुः किमर्थं रक्ष्यते? वैश्च पूर्वैरयं ‘मम मम’ इति आग्रहेण रक्षितः, ते इदानीं कुत्र गताः? तेषां कस्यायम्? अस्य वा के ते? तस्मात् परोपकारैकफलसिद्धये त्वदाज्ञया इमं कल्पपादपम् आराधयामि ।
सरलार्थ
हिन्दी – अनुवाद – यह सुनकर जीमूतवाहन ने मन में सोचा―”अहो आश्चर्य है। ऐसे अमर पेड़ (कल्पतरु) को पाकर भी हमारे पूर्वजों ने इससे ऐसा कोई (महान्) फल प्राप्त नहीं किया। अपितु लोभवश केवल तुच्छ (स्वल्प) धन ही अपने लिए माँगा। मैं इससे अपनी अभीष्ट मनोकामना की सिद्धि करूँगा। इस प्रकार सोचकर वह पिता के पास गया और सुखपूर्वक बैठे पिताजी से एकान्त में निवेदन किया- “पिताजी! आप तो जानते ही हैं। कि इस संसार – सागर में शरीर के साथ-साथ यह सम्पूर्ण धन-दौलत जल-तरंग की भाँति चञ्चल (अस्थिर) है।
इस संसार में एकमात्र शाश्वत भाव परोपकार (परहित) ही है जो युगों-युगों पर्यन्त यश उत्पन्न करता है, तो हम ऐसे अमर कल्पतरु की किस उद्देश्य के लिए रक्षा कर रहे हैं? और जिन मेरे पूर्वजों ने इसकी “यह मेरा है, मेरा है, इस आग्रह के साथ रक्षा की थी, वे अब कहाँ है?” और यह (कल्पवृक्ष) उनमें से किसका है? और कौन इसके हैं? इसलिए मैं आपकी आज्ञा से “परहित रूपी एकमात्र फल की सिद्धि के लिए” इस कल्पवृक्ष की पूजा करना चाहता हूँ।”
अथ पित्रा ‘तथा’ इति अभ्यनुज्ञातः स जीमूतवाहनः कल्पतरुम् उपगम्य उवाच – “देव ! त्वया अस्मत्पूर्वेषाम् अभीष्टाः कामाः पूरिताः, तन्ममैकं कामं पूरय । यथा पृथ्वीमदरिद्रां पश्यामि, तथा करोतु देव” इति । एवंवादिनि जीमूतवाहने “त्यक्तस्त्वया एषोऽहं यातोऽस्मि” इति वाक् तस्मात् तरोरुदभूत् । क्षणेन च स कल्पतरुः दिवं समुत्पत्य भुवि तथा वसूनि अवर्षत् यथा न कोऽपि दुर्गत आसीत् । ततस्तस्य जीमूतवाहनस्य सर्वजीवानुकम्पया सर्वत्र यशः प्रथितम् ।
सरलार्थ
अनुवाद – इसके पश्चात् पिता से वैसा करने की आज्ञा पाकर वह जीमूतवाहन उस कल्पतरु के समीप जाकर बोला- “हे देव! आपने हमारे पूर्वजों की अभीष्ट कामनाओं को पूर्ण किया है, अब मेरी भी एक कामना पूर्ण करो। हे देव! आप कुछ ऐसा करो, जिससे इस समस्त धरती पर गरीबी दिखाई न दे। जीमूतवाहन के ऐसा कहने पर उस कल्पवृक्ष ने “यह, तुम्हारे द्वारा छोड़ा गया मैं जा रहा हूँ” ऐसी आवाज निकली।” थोड़ी ही देर में उस कल्पवृक्ष ने स्वर्ग में उड़कर पृथिवी पर इतनी धन की वर्षा की जिससे कोई भी दरिद्र नहीं रहा। उसके बाद से उस जीमूतवाहन का यश, प्राणिमात्र के प्रति कृपा भाव रखने के कारण सब जगह प्रसिद्ध हो गया।
NCERT Class 9 Sanskrit Chapter 4 कल्पतरु Questions & Answer
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