Class 10 Sanskrit Chapter 11 प्राणेभ्योऽपि प्रिय: सुह्रद् का हिन्दी अनुवाद
प्राणेभ्योऽपि प्रिय: सुह्रद् :- पाठ- परिचय – ‘काव्येषु नाटकं रम्यम्’ ऐसी उक्ति प्रसिद्ध है । संस्कृत साहित्य में नाटकों की एक लम्बी श्रृंखला है जिसमें विविध नाटकों की कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं। इन्हीं नाटकों में कूटनीति एवं राजनीति से भरपूर एक प्रसिद्ध नाटक है ‘मुद्राराक्षसम्’। प्रस्तुत पाठ ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्‘ महाकवि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ के प्रथम अंक से सङ्कलित है।
नन्दवंश का विनाश करने के बाद उसके हितैषियों को खोज-खोजकर पकड़वाने के क्रम में चाणक्य, अमात्य राक्षस एवं उसके परिजनों की जानकारी प्राप्त करने के लिए चन्दनदास से वार्त्तालाप करते हैं किन्तु चाणक्य को अमात्य राक्षस के विषय में कोई सुराग न देता हुआ चन्दनदास अपनी मित्रता पर दृढ़ रहता है। उसके मैत्री भाव से प्रसन्न होते हुए भी चाणक्य जब उसे राजदण्ड का भय दिखाता है तब चन्दनदास राजदण्ड भोगने के लिए सहर्ष प्रस्तुत हो जाता है। इस प्रकार अपने मित्र के लिए प्राणों का भी उत्सर्ग करने के लिए तत्पर चन्दनदास अपनी सुहद्-निष्ठा का एक ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है ।
चाणक्यः- वत्स ! मणिकार श्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि ।
शिष्यः- तथेति (निष्क्रम्य चन्दनदासेन सह प्रविश्य) इतः इतः श्रेष्ठिन् (उभौ परिक्रामतः)
शिष्यः- (उपसृत्य) उपाध्याय ! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः ।
चन्दनदासः – जयत्वार्यः
चाणक्यः– श्रेष्ठिन् ! स्वागतं ते । अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभाः ?
चन्दनदासः – (आत्मगतम्) अत्यादरः शङ्कनीयः । (प्रकाशम्) अथ किम् । आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता मे वणिज्या ।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन् ! प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रिय-
मिच्छन्ति राजानः ।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः, किं कियत् च अस्मज्जनादिष्यते इति ।
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह नाट्यांश हमारी शेमुषी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षसम्’ नाटक के पहले अंक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में चाणक्य मणिकार चन्दनदास से मिलना चाहता है परन्तु चन्दनदास इस अत्यादर में शङ्का करता है।
हिन्दी – अनुवाद:-चाणक्य – बेटा (वत्स) ! अब मैं रत्नों के व्यापारी चन्दनदास से मिलना चाहता हूँ वैसा ही हो । (बाहर निकलकर और चन्दनदास के
शिष्य – साथ प्रवेश करके) इधर, इधर (आइए) सेठ जी !(दोनों घूमते हैं)।
शिष्य – (पास जाकर) गुरुदेव ! यह सेठ चन्दनदास है ।
चन्दनदास – आर्य की जय हो
चाणक्य – सेठ जी ! आपका स्वागत है। क्या व्यापार में आपकी लाभवृद्धियाँ बढ़ रही हैं ?
चन्दनदास – (मन ही मन) अत्यधिक आदर शंका करने योग्य होता । (प्रकट में) जी हाँ, आर्य की कृपा से मेरे व्यापार बाधारहित हैं ।
चाणक्य – अरे सेठ जी ! प्रसन्न स्वभाव से लोगों के लिए राजा प्रत्युपकार चाहते हैं ।
चन्दनदास – आर्य आज्ञा दें, क्या और कितना हमारे लिए आदेश दिया जाता है ।
चाणक्यः – भोश्रेष्ठिन् ! चन्द्रगुप्तराज्यमिदं न नन्दराज्यम् । नन्दस्यैव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति चन्द्रगुप्तस्य तु भवतामपरिक्लेश एव ।
चन्दनदासः – (सहर्षम्) आर्य ! अनुगृहीतोऽस्मि ।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन् ! स चापरिक्लेशः कथमाविर्भवति इति ननु भवता प्रष्टव्याः स्मः ।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः
चाणक्यः – राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव ।
चन्दनदासः – आर्य ! कः पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते ?
चाणक्यः– भवानेव तावत् प्रथमम् ।
चन्दनदासः – (कर्णौ पिधाय) शान्तं पापम्, शान्तं पापम् । कीदृशस्तृणानामग्निना सह विरोधः ?
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह नाट्यांश हमारी शेमुषी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षसम् ‘ नाटक के प्रथम अंक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में चाणक्य और चन्दनदास के संवाद के बहाने प्रसंग आरंभ किया जाता है।
हिन्दी अनुवाद:-चाणक्य – अरे सेठ जी ! यह चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य है न कि नन्द का राज्य । नन्द के राज्य में ही धन के प्रति लगाव स्नेह पैदा करता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के (राज्य में) तो आपको दुःख का अभाव ही है ।
चन्दनदास – (प्रसन्नता के साथ) आर्य ! मैं अनुगृहीत हुआ।
चाणक्य – अरे सेठ जी ! और वह दुःख का अभाव अर्थात् सुख कैसे उत्पन्न होता है, यह आपको निश्चित ही हमसे पूछना चाहिए ।
चन्दनदास – आर्य ! आदेश दें ।
चाणक्य – राजा के प्रति अविरोधी (विरोधहीन अर्थात् अनुकूल) व्यवहार वाले बनो ।
चन्दनदास – आर्य । फिर ऐसा कौन अभागा है जो राजा का विरोधी हो। ऐसा श्रीमान् जानते ही हैं आप ही बताएँ ।
चाणक्य – प्रथम (प्रमुख) तो आप ही हैं।
चन्दनदास – (कानों को बन्द करके अर्थात् कानों पर हाथ रखकर) पाप शान्त हो, पाप शान्त हो (अरे राम, राम) तिनकों के साथ आग का कैसा विरोध ?
चाणक्यः-अयमीदृशो विरोधः यत् त्वमद्यापि राजा- पथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षसि ।
चन्दनदासः – आर्य! अलीकमेतत् । केनाप्यनार्येण आर्याय निवेदितम्
चाणक्यः– भो श्रेष्ठिन् ! अलमाशङ्कया । भीताः पूर्वराजपुरुषाः पौराणामिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति । ततस्तत्प्रच्छादनं दोषमुत्पादयति ।
चन्दनदासः – एवं नु इदम् तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति ।
चाणक्य -पूर्वम् ‘अनृतम्’, इदानीम् ‘आसीत्’ इति परस्परविरुद्धे वचने ।
चन्दनदासः – आर्य ! तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे
अमात्यराक्षस्य गृहजन इति ।
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह हमारी शेमुषी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त रचित ‘मुद्राराक्षसम् ‘ नाटक के प्रथम अंक से सङ्कलित है। इस नाट्यांश में चाणक्य अपने कथ्य को चन्दनदास से कहता है और अन्वेषण आरम्भ कर देता है।
हिन्दी अनुवाद:-चाणक्य – यह ऐसा विरोध है कि आप अब भी राजा का अहित करने वाले मन्त्री राक्षस के परिवारवालों को अपने घर में छुपाकर रक्षा करते हैं ।
चन्दनदास-आर्य ! यह (बिल्कुल) झूठ है। किसी दुष्ट ने (आपसे) ऐसा कह दिया है ।
चाणक्य – अरे सेठ जी ! शंका मत करो । भूतपूर्व राजा के डरे हुए सैनिक चाहने वाले नगरवासियों के घरों में अपने परिजनों को भी रखकर परदेश को जाते हैं। तब उस अमात्य राक्षस का छुपाना दोष या अपराध को जन्म देता है।
चन्दनदास-ऐसा नहीं है, उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस के परिवार के लोग थे –
चाणक्य-पहले ‘अनृतम्’ (झूठ) अब ‘आसीत्’ (थे) इस प्रकार आपस में (परस्पर) विरोधी वचन है ।
चन्दनदास -आर्य ! उस समय (तब) हमारे घर में अमात्य राक्षस के परिवार वाले थे (अब नहीं हैं)।
चाणक्यः– अथेदानीं क्व गतः ?
चन्दनदासः न जानामि ।
चाणक्यः– • कथं न ज्ञायते नाम ? भो श्रेष्ठिन् ! शिरसि भयम्, अतिदूरं तत्प्रतिकारः ।
चन्दनदासः – आर्य! किं मे भयं दर्शयसि ? सन्तमपि गेहे अमात्यराक्षसस्य गृहजनं न समर्पयामि, किं पुनरसन्तम् ?
चाणक्यः – चन्दनदास ! एष एव ते निश्चयः ?
चन्दनदासः – बाढम्, एष एव मे निश्चयः ।
चाणक्यः– (स्वगतम्) साधु ! चन्दनदास साधु ।
सुलभेष्वर्यलाभेषु परसंवेदने जने ।
क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना ।।
सन्दर्भ-प्रसङ्गश्च – यह नाट्यांश हमारी शेमुषी पाठ्य-पुस्तक के ‘प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद्’ पाठ से लिया गया है। मूलतः यह पाठ महाकवि विशाखदत्त रचित नाटक ‘मुद्राराक्षसम्’ नाटक के प्रथम अंक से सङ्कलित किया गया है। इस अंश में चाणक्य और चन्दनदास का संवाद विवाद में परिवर्तित हो जाता है।
हिन्दी अनुवाद:-चाणक्य – तो अब कहाँ गए ?
चन्दनदास – मैं नहीं जानता (मुझे पता नहीं) ।
चाणक्य – क्यों नहीं जानते हो । अरे सेठजी, डर तो सिर पर सवार है और (उसका) उपाय बहुत दूर है।
चन्दनदास – आर्य । क्या मुझे डरा रहे हैं ? घर में होते हुए भी अमात्य राक्षस के परिवार के लोगों को नहीं दे सकता हूँ फिर न होने पर तो कहना ही क्या ?
चाणक्य – चन्दनदास । क्या तुम्हारा यही निश्चय है ?
चन्दनदास – हाँ, मेरा यही निश्चय है ।
चाणक्य – (मन ही मन धन्य हो चन्दनदास, तुम धन्य हो । दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर धन की प्राप्ति आसान हो जाने पर भी यह (स्वार्थ त्यागकर दूसरे की वस्तु की रक्षा करने का) कार्य मनुष्यों में अत्यन्त कठिन कार्य है । दानवीर शिवि के (तुम्हारे) अलावा (अतिरिक्त) इसे और कौन करे ।
प्राणेभ्योऽपि प्रिय: सुह्रद् Class 10 Sanskrit
प्रश्न । एकपदेन उत्तर लिखत-
(क) कः चन्दन दासं दृष्टुम् इच्छति ?
उत्तर चाणक्य:।
(ख) चन्दनदासस्य वणिज्या कीदृशी आसीत्?
उत्तर अखण्डिता।
(ग) किं दोषम् उत्पादयति ?
उत्तर गृहजन प्रच्छादनम्।
(घ) चाणक्य कं द्रष्टुम् इच्छति ?
उत्तर चन्दनदासम्।
(ङ) कः शङ्कनीयः भवति ?
उत्तर अत्यादरः।
प्रश्न 2 अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतभाषया लिखत-
(क) चन्दनदासः कस्य गृहजन स्वगृहे रक्षति स्म ?
उत्तरम् – चन्दनदासः अमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षति स्म ।
(ख) तृणानां केन सह विरोधः अस्ति ?
उत्तरम् – तृणानाम् अग्निना सह विरोधः अस्ति ।
(ग) पाठेऽस्मिन् चन्दनदासस्य तुलना केन सह कृता ?
उत्तरम् – पाठेऽस्मिन् चन्दनदासस्य तुलना शिविना सह कृता ।
(घ) प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियं के इच्छन्ति ?
उत्तरम् – प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियं राजानः इच्छन्ति ।
(ङ) कस्य प्रसादेन चन्दनदासस्य वणिज्या अखण्डिता ?
उत्तरम् – आर्यचाणक्यस्य प्रसादेन चन्दनदासस्य वणिज्या अखण्डिता ।
प्रश्न 3. स्थूलाक्षरपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माण कुरुत –
(क) शिविना विना इदं दुष्करं कार्यं कः कुर्यात् ।
उत्तरम् – केन विना इदं दुष्करं कार्यं कः कुर्यात् ?
(ख) प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृत् ।
उत्तरम् – प्राणेभ्योऽपि प्रियः कः ?
(ग) आर्यस्य प्रसादेन मे वणिज्या अखण्डिता ।
उत्तरम् – कस्य प्रसादेन मे वणिज्या अखण्डिता ।
(घ) प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः राजानः प्रतिप्रियमिच्छन्ति ।
उत्तरम् – प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः के प्रतिप्रियमिच्छन्ति ?
(ङ) तृणानाम् अग्निना सह विरोधो भवति ।
उत्तरम् – केषाम् अग्निना सह विरोधो भवति ?
प्रश्न 4 यथानिर्देशमुत्तरत्–
(क) ‘अखण्डिता मे वणिज्या’- अस्मिन् वाक्ये क्रियापदं किम् ?
(ख) पूर्वम् ‘अनृतम्’ इदानीम् आसीत् इति परस्परविरुद्धे वचने- अस्मात् वाक्यात् ‘अधुना’ इति पदस्य समानार्थकपदं चित्वा लिखत ।
(ग) ‘आर्य! किं मे भयं दर्शयसि’ अत्र ‘आर्य’ इति सम्बोधनपदं कस्मै प्रयुक्तम् ?
(घ) ‘प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः’ अस्मिन् वाक्ये कर्तृपदं किम् ?
(ङ) तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे’ अस्मिन् वाक्ये विशेष्यपदं किम् ?
उत्तरम् – (क) अखण्डिता (ख) इदानीम्, (ग) चाणक्याय, (घ) राजानः,(ङ) गृहे ।