NCERT Solutions for Class 12 Chapter 14 पहलवान की ढोलक Question
फणीश्वर नाथ ‘रेणु’
RBSE Class 12 Hindi Aniwaray पहलवान की ढोलक लेखक परिचय– फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ का जन्म 4 मार्च, सन् 1921, औराही हिंगना (जिला पूर्णिया अब अररिया) बिहार में हुआ था। आपका निधन 11
हिन्दी साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जीवन उतार-चढ़ावों एवं संघर्षों से भरा हुआ था। साहित्य के अलावा विभिन्न राजनैतिक एवं सामाजिक आंदोलनों में भी उन्होंने सक्रिय भागीदारी की। उनकी यह भागीदारी एक और देश के निर्माण में सक्रिय रही तो दूसरी और रचनात्मक साहित्य को नया तेवर देने में सहायक रही।
प्रमुख रचनाएँ-मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, जुलूस, कितने चौराहे (उपन्यास); ठुमरी, अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप (कहानी-संग्रह); ऋणजल धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व (संस्मरण); नेपाली क्रांति कथा (रिपोर्ताज) तथा रेणु रचनावली (पाँच खंडों में समग्र) ।
सन् 1954 में उनका बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास मैला आँचल प्रकाशित हुआ जिसने हिन्दी उपन्यास को एक नयी दिशा दी। हिन्दी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श मैला आँचल से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की अवधारणा ने कथा साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक जीवन को केन्द्र में ला खड़ा किया।
लोकगीत, लोकोक्ति, लोकसंस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है इसीलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है
तो दूसरी तरफ धूल भरा और मैला भी स्वातंत्र्योत्तर भारत में जब सारा विकास शहर केन्द्रित होता जा रहा था। ऐसे में रेणु ने अपनी रचनाओं से अंचल की समस्याओं की ओर भी लोगों का ध्यान खींचा। उनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है।
1. जाड़े का दिन । अमावस्या की रात-ठंडी और काली । मलेरिया और हैजे से पीड़ित गाँव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य! अँधेरा और निस्तब्धता !
अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी । निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी आकाश में तारे चमक रहे थे पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं । आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी । अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे ।
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से लिया गया है। इसके लेखक फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ हैं। प्रसंग- लेखक हैजे की महामारी से पीड़ित गाँव की एक ठंडी, अँधेरी और डराने वाली रात का वर्णन कर रहा है।
व्याख्या– जाड़े के दिन चल रहे थे। गाँव पर अमावस्या की ठंडी और काली रात छाई हुई थी। गाँव में मलेरिया और हैजे की बीमारियाँ फैली हुई थीं। बीमारियों से भयभीत लोग, एक डरे हुए बच्चे की भाँति घर-घर काँप रहे थे।
गाँव में पुरानी और खाली घास-फूस की झोपड़ियाँ थीं। उनमें घोर अंधकार और सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं से कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ रही थी। लगता था वह अँधेरी रात उस गाँव की दुर्दशा पर चुपचाप आँसू बहा रही थी।
घोर सन्नाटा पीड़ित ग्रामवासियों की करुणा भरी सिसकियों और दुख भरी कराहों को बाहर प्रकट नहीं होने देना चाह रहा था। अमावस्या की उस काली रात में तारे चम चमा रहे थे। धरती पर प्रकाश की एक किरण भी नजर नहीं आ रही थी। जब कोई तारा टूटकर धरती की ओर आता था तो लगता था,
ग्रामवासियों की घोर पीड़ा से व्याकुल होकर वह उन्हें सांत्वना देने आ रहा था। लेकिन उसकी तीव्र चमक धरती तक पहुँचने से पहले ही अदृश्य हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता को देख जैसे हँस रहे थे।
विशेष– (1) जाड़े की ठंडी रात का यथार्थ शब्द-चित्र अंकित हुआ है। (2) प्रकृति को मानवीय संवेदनाओं से प्रभावित दिखाया गया है। (3) भाषा साहित्यिक है। (4) शैली शब्द चित्रात्मक है।
2. लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ-बाप का अनुसरण करता । विधवा सास ने पाल-पोसकर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ दिया करते थे;
लुटन के सिर पर कसरत की पुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बाँहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी में कदम रखते ही वह गाँव में सबसे अच्छा पहलवान समझा जाने लगा । लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भाँति चलने लगा । वह कुश्ती भी लड़ता था ।
सन्दर्भ -प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से लिया गया है। इसके लेखक फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ हैं।
प्रसंग- लेखक इस अंश में लुट्टन पहलवान का आरंभिक परिचय दे रहा है।
व्याख्या-लुट्टन के माता-पिता का 9 वर्ष की अवस्था में देहांत हो चुका था। लुट्टन की शादी हो चुकी थी। अतः उसकी विधवा सास ने उसका पालन-पोषण किया। लुट्टन बचपन में गायें चराया करता था।
गाय के धनों से निकले दूध को बिना गर्म किए हो पिया करता था। उसे बचपन से ही कसरत करने का शौक था। गाँव के लोग उसकी सास को सताया करते थे। लोगों से बदला लेने को ही उसने खूब कसरत करना शुरू किया था।
नियमपूर्वक करने से किशोरावस्था में ही उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट हो गया था। जवानी आते हो वह गाँव का सबसे अच्छा पहलवान माना जाने लगा। लोग उससे डरने लगे थे। वह दोनों हाथों को पहलवानों की भाँति चौड़ाकर चला करता था। उसने कुश्ती लड़ना भी आरंभ कर दिया था।
विशेष– (1) लुट्टन के पहलवान बनने तक का विवरण दिया गया है।
(2) भाषा सरल है।
(3) शैली वर्णनात्मक है।
3. विजयी लुट्टन कूदता फाँदता, ताल-बैंकता सबसे पहले बाजे वालों की ओर दौड़ा और ढोलों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया । फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब के कीमती कपड़े मिट्टी में सन गए। मैनेजर साहब ने आपत्ति की “हॅ हॅ… अरे रे !” किंतु राजा साहब ने स्वयं उसे छाती से लगाकर गद्गद होकर कहा-
“जीते रहो, बहादुर! तुमने मिट्टी की लाज रख ली !” पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी । लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुटन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे।
राज- पंडितों ने मुँह बिचकाया- “हुजूर! जाति का …. सिंह…. !” मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। ‘क्लीन शेव्ड’ चेहरे को संकुचित करते हुए, अपनी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे । चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले-“हाँ सरकार, यह अन्याय है!”
राजा साहब ने मुसकुराते हुए सिर्फ इतना ही कहा- “उसने क्षत्रिय का काम किया है।”
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य-पुस्तक’ आरोह भाग-2′ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से लिया गया है। इसके लेखक फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ हैं। प्रसंग-लुट्टन पहलवान ने चाँद सिंह को कुश्ती में हरा दिया। इसके बाद जो कुछ हुआ, उसका वर्णन लेखक इस अंश में कर रहा है।
व्याख्या– जिसकी किसी को सपने में भी आशा नहीं थी वह हो गया। लुट्टन ने चाँद सिंह को सारी भीड़ के सामने पछाड़ दिया। चाँद का सिर लज्जा के मारे झुका हुआ था। सारे पंजाबी पहलवान चाँद सिंह के आँसू पाँछ रहे थे। राजा साहब ने प्रसन्न होकर लुट्टन से कहा कि उसने मिट्टी की लाज रख ली।
राजा साहब ने लुट्टन को पुरस्कार तो दिया ही साथ ही उसे सदा के लिए अपने दरबार में रख लिया। तब से लुट्टन राज पहलवान हो गया। राजा साहब अब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राजा पण्डितों को लुट्टन का ऐसा सम्मान किया जाना तनिक भी नहीं सुहाया। उन्होंने मुँह बिचका बिचका कर राजा को उसकी नीची जाति बताई।
राजा के मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। उनको भी राजा साहब का लुट्टन को ‘सिंह’ कहकर पुकारना पसंद नहीं आया। अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करने के लिए वह अपनी नाक के बालों को उखाड़ने लगे। उन्होंने भी पण्डितों के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि राजा साहब ने अन्याय किया है।
किन्तु इन सभी अहंकारियों की बातें सुनकर वह केवल मुस्करा दिए। उन्होंने कहा कि लुट्टन ने एक क्षत्रिय जैसा काम किया था। यह राजा साहब का न्याय था न कि अन्याय ।
विशेष– (1) लुट्टन के साहस और अटूट आत्मविश्वास का रोचक वर्णन हुआ है।
(2) जाति के नाम पर चोथे अहंकार को ढोने वाले लोगों पर व्यंग्य प्रहार किया गया है।
(3) भाषा सरल है।
(4) शैली वर्णनात्मक है।
4. रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकार कर चुनौती देती रहती थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख्याल से ढोलक बजाता हो, किंतु गाँव के अर्द्धमृत, औषधि उपचार- पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी । बूढ़े बच्चे- जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था ।
स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी । अवश्य ही ढोलक की आवाज में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश शक्ति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे । हुए प्राणियों
सन्दर्भ-प्र – प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य पुस्तक ‘ आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से लिया गया है। इसके लेखक फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ हैं।
प्रसंग- इस अंश में लेखक रात्रि होने पर गाँव की डरावनी दशा का वर्णन कर रहा है। सूरज डूबते ही लोग अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते थे। सारे गाँव को चुप्पी घेर लेती थी। लोगों की बोली भी नहीं निकलती थी। उस सन्नाटे भरी रात में लोगों का एक ही सहारा था। पहलवान की ढोलक से निकली ध्वनि ही उन्हें जिन्दा रखती थी। उस ढोलक की ध्वनि में एक ललकार थी, मृत्यु को एक चुनौती थी।
व्याख्या-लुट्टन शाम से सुबह तक ढोलक बजाता रहता था। उसका ढोलक बजाने के पीछे जो भी भाव रहा हो लेकिन ढोलक की वह ध्वनि गाँव के अधमरे, दवाई-इलाज और पथ्य से रहित प्राणियों में वह जीवन भर देती थी। उस ध्वनि को सुनकर गाँव के बूढ़े, बच्चे और नौजवान लोगों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का वही दृश्य नाचने लगता था। उनकी सुन्न पड़ गई। नाड़ियों में बिजली-सी दौड़ने लगती थी।
ढोल की उस आवाज से न तो बुखार हट सकता था और न महामारी की विनाशक शक्ति रुक सकती थी। परन्तु इतना निश्चित था कि मरते हुए प्राणियों को मरते समय कोई कष्ट नहीं होता था। वे लोग मृत्यु से डरते नहीं थे।
विशेष – (1) हृदय को विचलित कर देने वाले दृश्यों का सजीव चित्रण हुआ है।
(2) भाषा साहित्यिक है और भाव संप्रेषण में पूर्ण समर्थ है।
(3) शैली शब्द-चित्रात्मक है।
पाठ्यपुस्तक के अभ्यास प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न 1. कुश्ती के समय ढोल की आवाज और लुट्टन के दाँव-पेंच में क्या तालमेल था ? पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज आपके मन में कैसी ध्वनि पैदा करते हैं ? उन्हें शब्द दीजिए ।
उत्तर– कुश्ती के समय ढोल से निकलती आवाजें लुट्टन को कुश्ती के दाव-पेंच बताती प्रतीत होती थीं। वह उन्हीं ध्वनियों से प्रकट होने वाले दाव पेंच प्रयोग में लाता था, जैसे ढोल की ध्वनियाँ दाँव-पेंच
चट्-धा, गिड़-धा
आजा भिड़ जा !
चटाक् चट्-धा
ढाकू-दिना
उठाकर पटक दे !
वाह पट्टे !
चट्-गिड़-धा
मत डरना आदि !
पाठ में आए ध्वन्यात्मक शब्द और ढोल की आवाज़ हमारे मन में उत्साह और धैर्य उत्पन्न करती है।
प्रश्न 2. कहानी के किस-किस मोड़ पर लुटन के जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आए ?
उत्तर- कहानी के कथानक में निम्नलिखित मोड़ हैं और उनसे आने वालेपरिवर्तन इस प्रकार हैं
1. कहानी का आरम्भ-पहलवान का बचपन में अनाथ होना । विधवा सास द्वारा उसका लालन-पालन होना। गाय-भैंसें चराना, दूध पीना और कसरत करना ।
2. मध्य बिन्दु की ओर कथानक की गति – कुश्ती तथा कसरत में रुचि बढ़ते जाना । अपनी सास का अपमान करने वालों को सबक सिखाने के इरादे से कुश्ती में दृढ़ता दिखाना ।
3. मध्य बिन्दु-श्यामनगर के मेले में जाना । अचानक नामी पहलवान चाँद सिंह से कुश्ती लड़ना तथा उसको पराजित करना । राजा साहब का दरबारी पहलवान बनना ।
4. आगे विकास होना- राजा साहब की मृत्यु, राजकुमार का राज्याधिकार होना, फालतू मानकर पहलवान तथा उसके बेटों की छुट्टी होना। गाँव में आकर रहना । 5. चरम विन्दु-गाँव में महामारी फैलना ढोलक बजाकर लोगों के मन में साहस पैदा करना महामारी से दोनों बच्चों की मृत्यु के बाद स्वयं पहलवान की मौत होना ।
प्रश्न 3. लुट्टन पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है ?
उत्तर– लुट्टन ने कुश्ती के दाव पेंच किसी गुरु से नहीं सीखे थे। सास का अपमान करने वालों से बदला लेने की इच्छा उसे कुश्ती लड़ने की प्रेरणा देती रही थी। चाँद सिंह पहलवान को भी उसने ढोल की ध्वनियों से प्रेरित होकर हराया था। अतः इसी कारण उसने कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है।
प्रश्न 4. गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के देहान्त के बावजूद लुट्टन पहलवान ढोल क्यों बजाता रहा ?
उत्तर- लुट्टन पहलवान का ढोल से गहरा रिश्ता था। ढोल की आवाज उसे जीने तथा संघर्ष करने की प्रेरणा देती थी। गाँव में महामारी फैली थी। चारों तरफ सन्नाटा और उदासी थी। ढोल की आवाज ही इस सन्नाटे को तोड़ती थी। मृत्यु की ओर बढ़ते रोगियों को हिम्मत बँधाती थी । जब लुट्टन के दोनों जवान बेटे मरे तो अपने मन की उदासी और सूनापन दूर करने के लिए वह रातभर ढोलक बजाता रहा ।
प्रश्न 5. ढोलक की आवाज का पूरे गाँव पर क्या असर होता था ?
उत्तर– गाँव में हैजा तथा मलेरिया रोग फैले थे। गाँव में निर्धनता और साधनहीनता इतनी थी कि दवा इलाज और पथ्य की व्यवस्था न होने से लोग मर रहे थे। ढोलक की आवाज लोगों का डर दूर करती थी तथा उनको संघर्ष करते हुए निर्भीक भाव से मरने में सहायक होती थी। पहलवान की ढोलक की आवाज गाँव के लोगों के मन में साहस और उत्साह का संचार करती थी।
प्रश्न 6. महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य में क्या अन्तर होता था ?
उत्तर– गाँव में सूर्योदय होता तो लोगों के मन में कुछ साहस आ जाता था। वे कराहते खाँसते हुए घर से बाहर आकर अपने पड़ोसियों और मिलने वालों को सान्त्वना देते थे और साहस बढ़ाते थे परन्तु सूर्यास्त होते ही यह सब समाप्त हो जाता था। लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते थे चारों तरफ अन्धकार तथा सन्नाटा हो जाता था। लोगों की कराहने की आवाजें भी सुनाई नहीं देती थीं।
प्रश्न 7. कुश्ती का दंगल पहले लोगों तथा राजाओं का प्रिय शौक हुआ करता था। पहलवानों को राजा एवं लोगों द्वारा विशेष सम्मान दिया जाता था।
(क) ऐसी स्थिति अब क्यों नहीं है ?
(ख) इसकी जगह अब किन खेलों ने ले ली है?
(ग) कुश्ती को फिर से प्रिय खेल बनाने के लिए क्या-क्या कार्य किए जा सकते हैं ? उत्तर- पुराने जमाने में कुश्ती या दंगल लोगों तथा राजाओं का प्रिय शौक था। वे पहलवानों को विशेष सम्मान देते थे।
(क) अब न राजा रहे हैं और न जमींदार । वे लोग पहलवानों को प्रोत्साहित करते थे तथा उनके पोषण का भार उठाते थे। अब खाने-पीने का भारी खर्च कोई पहलवान स्वयं नहीं उठा सकता अन्य खेलों के आ जाने से कुश्ती में लोगों की रुचि कम हो गई है।
(ख) कुश्ती अब लोकप्रिय नहीं रहा है। अब उसका स्थान अन्य खेलों ने ले लिया है। हॉकी, फुटबॉल, वॉलीबाल, टेनिस आदि खेल खेले जाते हैं। आज क्रिकेट सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है।
(ग) कुश्ती को फिर से लोकप्रिय बनाने के लिए उसकी तैयारी करने वाले व्यक्ति को आर्थिक सहायता देना सबसे पहली आवश्यकता है। इसके लिए कुश्ती संघ की स्थापना की जा सकती है तथा विद्यालयों में कुश्ती के लिए छात्रों को प्रेरित किया जा सकता है। सरकारी विभागों में पहलवानों को खेल के कोटे में नौकरी दी जा सकती है। जिला पंचायतें, नगर पालिकाएँ तथा अन्य सामाजिक संस्थाएँ भी सहायता दे सकती हैं।
प्रश्न 8. आशय स्पष्ट करें
आकाश से टूटकर कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे ।
उत्तर- तारा टूटना एक प्राकृतिक क्रिया है। आकाश से गिरकर कोई उल्का जब पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करती है। तो बढ़े हुए ताप के कारण जलकर नष्ट हो जाती है। यह एक प्रकृति-सिद्ध तथ्य है। शेष तारे आकाश में ही चमकते रहते हैं। लेखक ने आकाश के तारे में मनुष्य के समान भावुक होने की कल्पना की है। भावुकतावश ही वह धरती पर आकर दुःखी मनुष्यों को धैर्य बँधाना चाहता था। उसकी असफलता पर अन्य तारे उसकी हँसी उड़ाते थे।
प्रश्न 9. पाठ में अनेक स्थलों पर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है । पाठ में से ऐसे अंश चुनिए और उनका आशय स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर– प्रकृति को अथवा अन्य निर्जीव शक्तियों को सजीव मनुष्य की तरह भावुकतापूर्ण आचरण करते हुए दिखाना प्रकृति का मानवीकरण कहा जाता है। मानवीकरण के कुछ स्थल इस प्रकार हैं
(क) अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी ।
(ख) निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय मैं ही दबाने की चेष्टा कर रही थी
(ग) तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर हँस पड़ते थे ।
(घ) यही आवाज मृत गाँव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी ।
(ङ) लुट्टन को स्पष्ट सुनाई पड़ा, ढोल कह रहा था। इन उदाहरणों में रात, निस्तब्धता, तारे, आवाज, ढोल आदि को मनुष्य की तरह आचरण करते दिखाया गया है। आशय यह है कि रात में ओस गिर रही थी। पूर्ण-शान्ति के कारण कोई धीमा स्वर भी नहीं सुनाई दे रहा था, तारे चमक रहे थे। गाँव के लोग ढोलक की आवाज सुन जीवन की प्रेरणा पाते थे । लुट्टन को ढोल की ताल उसके संदेश जैसी लग रही थी।