Class 12 Hindi Aaroh Chapter 15 चार्ली चैप्लिन यानी हम सब
12 Hindi Aaroh Chapter 15 लेखक परिचय विष्णु खरे का जन्म 9 फरवरी सन् 1940, छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश) में हुआ था।
समकालीन हिन्दी कविता और आलोचना में विष्णु खरे एक विशिष्ट हस्ताक्षर हैं। उन्होंने हिन्दी जगत को अत्यंत गहरी विचारपरक कविताएँ दी हैं, तो साथ ही बेबाक आलोचनात्मक लेख भी दिए हैं। विश्व साहित्य का गहन अध्ययन उनके रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन में पूरी रंगत के साथ दिखलाई पड़ता है। विश्व सिनेमा के भी वे गहरे जानकार हैं और पिछले कई वर्षों से लगातार सिनेमा की विधा पर गंभीर लेखन करते रहे हैं। 1971-73 के अपने विदेश-प्रवास के दरम्यान उन्होंने तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग के प्रतिष्ठित फिल्म क्लब की सदस्यता प्राप्त कर संसार-भर की सैकड़ों उत्कृष्ट फिल्में देखीं।
यहाँ से सिनेमा-लेखन को वैचारिक गरिमा और गंभीरता देने का उनका सफर शुरू हुआ। ‘दिनमान’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘दि पायोनियर’, ‘दि हिंदुस्तान’, ‘जनसत्ता’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘हंस’, ‘कथादेश’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं में उनका सिनेमा विषयक लेखन प्रकाशित होता रहा है। वे उन विशेषज्ञों में से हैं जिन्होंने फिल्म को समाज, समय और विचारधारा के आलोक में देखा तथा इतिहास, संगीत, अभिनय, निर्देशन की बारीकियों के सिलसिले में उसका विश्लेषण किया। अपने लेखन के द्वारा उन्होंने हिन्दी के उस अभाव को थोड़ा भरने में सफलता पाई है
प्रमुख रचनाएँ- एक गैर रूमानी समय में, खुद अपनी आँख से, सबकी आवाज के पर्दे में, पिछला बाकी (कविता-संग्रह); आलोचना की पहली किताब (आलोचना); सिनेमा पढ़ने के तरीके (सिने आलोचना ); मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ (टी. एस. इलियट), यह चाकू समय (अँतिला योझेफ), कालेवाला (फिनलैंड का राष्ट्रकाव्य) (अनुवाद)
पुरस्कार – रघुवीर सहाय सम्मान, हिन्दी अकादमी (दिल्ली) का सम्मान, शिखर सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, फिनलैंड का राष्ट्रीय सम्मान नाइट ऑफ दि ऑर्डर ऑ दि व्हाइट रोज।
Aaroh Chapter 15 चार्ली चैप्लिन यानी हम सब महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1. चैप्लिन का चमत्कार यही है कि उनकी फिल्मों को पागलखाने के मरीजों, विकल मस्तिष्क लोगों से लेकर आइन्स्टाइन जैसे महान प्रतिभा वाले व्यक्ति तक कहीं एक स्तर पर और कहीं सूक्ष्मतम रसास्वादन के साथ देख सकते हैं। चैप्लिन ने न सिर्फ फिल्म कला को लोकतांत्रिक बनाया बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोड़ा।
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यह अकारण नहीं है कि जो भी व्यक्ति, समूह या तंत्र गैर-बराबरी नहीं मिटाना चाहता वह अन्य संस्थाओं के अलावा चैप्लिन की फिल्मों पर भी हमला करता है। चैप्लिन भीड़ का वह बच्चा है जो इशारे से बतला देता है कि राजा भी उतना ही नंगा है जितना मैं हूँ और भीड़ हँस देती है कोई भी शासक या तंत्र जनता का अपने ऊपर हँसना पसन्द नहीं करता ।
सन्दर्भ- – प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ से संकलित पाठ ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ से लिया गया है। इसके लेखक श्री विष्णु खरे हैं।
प्रसंग- इस गद्यांश में लेखक चार्ली की फिल्मों की सर्वव्यापक लोकप्रियता पर प्रकाश डाल रहा है।
व्याख्या – लेखक का मानना है कि चार्ली की फिल्में मानवीय भावनाओं पर आधारित हैं। बौद्धिक लोग उनका पूरा आनन्द नहीं उठा पाते। यही कारण है कि पागल और मानसिक रूप से विकल व्यक्ति भी उनकी फिल्मों का सहज भाव से आनंद ले सकता है, तो महान प्रतिभाशाली आइंस्टाइन
जैसे वैज्ञानिक भी एक सीमा तक उनको देखकर आनंदित हो सकते हैं। चार्ली ने फिल्म निर्माण कला को एक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण प्रदान किया। उन्होंने वर्ग और वर्ण के नाम पर चले आ रहे दर्शकों के विभाजन को तोड़ दिया। जो व्यक्ति, समूह तंत्र, समाज से असमानता दूर नहीं करना चाहता, वह अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ चार्ली की फिल्मों का विरोध करता है।
अपनी फिल्मों के दर्शकों के बीच, चार्ली उस बच्चे के समान हैं जो इशारे से भीड़ को बता देता है कि राजा भी उतना नंगा है जितना कि वह स्वयं है। दर्शक हँसने लगते हैं। अपने ऊपर भी हँसना चार्ली के अभिनय की खास विशेषता है। चाहे कोई शासक हो या कोई व्यवस्था, किसी को भी यह सहन नहीं होता कि जनता उस पर हँसे । चार्ली ऐसे शासकों और संस्थाओं की हँसी उड़ाने के साथ ही अपने आप पर भी हँसते रहे हैं। स्वयं को भी व्यंग्य का निशाना बनाते रहे हैं।
विशेष- (1) चार्ली की फिल्में समाज के साधारण बुद्धि वालों से लेकर बौद्धिकता से सम्पन्न प्रतिभाशालियों का भी मनोरंजन करती है। (2) चार्ली की फिल्मों द्वारा फिल्म कला के क्षेत्र में स्वतंत्र चिंतन की परम्परा आई है।
2. चार्ली पर कई फिल्म समीक्षकों ने ही नहीं, फिल्म कला के उस्तादों और मानविकी के विद्वानों ने सिर धुने हैं और उन्हें नेति नेति कहते हुए भी यह मानना पड़ता है कि चार्ली पर कुछ नया लिखना कठिन होता जा रहा है। दरअसल सिद्धांत कला को जन्म नहीं देते, कला स्वयं अपने सिद्धांत या तो लेकर आती है या बाद में उन्हें गढ़ना पड़ता है । जो करोड़ों लोग चार्ली को देखकर अपने पेट दुखा लेते हैं उन्हें मैल ओटिंगर या जेम्स एजी की बेहद सारगर्भित समीक्षाओं से क्या लेना-देना ?
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ से संकलित पाठ ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ से लिया गया है। इसके लेखक श्री विष्णु खरे हैं।
प्रसंग-लेखक का मानना है कि चार्ली की अनेक फिल्मों की विवेचना अनेक फिल्म कला के ज्ञाताओं, शिक्षकों और मानविकी के विद्वानों ने की है। उनकी फिल्मों पर अब तक इतना लिखा और कहा जा चुका है कि कुछ नया लिखना कठिन हो गया है।
व्याख्या- अनेक फिल्मों की समीक्षा करने वालों, फिल्म कला में पारंगत विद्वानों और मानविकी को गहराई से समझने वाले विद्वानों ने भी कही है। सभी फिल्म समीक्षक यह मानते रहे हैं कि चार्ली की फिल्मों पर अभी और बहुत कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन ये सभी लोग यह भी मानते हैं कि चार्ली की फिल्मों पर कुछ नया लिखना सम्भव नहीं रहा है। कला का जन्म और विकास पहले से गढ़े गए सिद्धांतों के आधार पर नहीं होता। हर कला स्वयं अपने सिद्धान्तों के साथ आती है या फिर कला के विकसित हो जाने पर उसके सिद्धान्त गढ़े जाते हैं।
संसार के करोड़ों लोग चार्ली को फिल्म में देखते ही इतना हँसते हैं कि हँसते-हँसते उनके पेटों में बल पड़ जाते हैं। ऐसे करोड़ों दर्शकों को, चार्ली पर लिखी गई मैल ओटिंगर या जेम्स एजी (प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक) की चार्ली पर लिखी गई अत्यन्त सारगर्भित समीक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं होता। ऐसे दर्शक तो चार्ली को ‘समय’ और ‘भूगोल’ से अलग करके देखते हैं। चार्ली द्वारा बनाई गईं सौ वर्ष पुरानी फिल्में लोगों को आज भी उतना ही आकर्षित करती हैं जितना पहले करती थीं। आशय यह है कि इतना समय बीत जाने पर भी उनकी फिल्मों में वही नयापन है।
विशेष- (1) लेखक की मान्यता है कि चार्ली की फिल्में ‘देश और काल’ के प्रभाव से परे हैं। उनमें दर्शकों को लुभाने का गुण आज भी यथावत बना हुआ है। (2) भाषा का शब्द चयन विषय के अनुरूप है। (3) शैली में समीक्षा की गहराई है।
3. चार्ली के नितांत अभारतीय सौंदर्यशास्त्र की इतनी व्यापक स्वीकृति देखकर राजकपूर ने भारतीय फिल्मों का एक सबसे साहसिक प्रयोग किया। ‘आवारा’ सिर्फ ‘दि ट्रैम्प’ का शब्दानुवाद ही नहीं था बल्कि चार्ली का भारतीयकरण ही था । वह अच्छा ही था कि राजकपूर ने चैप्लिन की नकल करने के आरोपों की परवाह नहीं की।
राजकपूर के ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ के पहले फिल्मी नायकों पर हँसने की और स्वयं नायकों के अपने पर हँसने की परंपरा नहीं थी । 1953-57 के बीच जब चैप्लिन अपनी गैर- ट्रैम्पनुमा अंतिम फिल्में बना रहे थे तब राजकपूर चैप्लिन का युवा अवतार ले रहे थे ।
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘चार्ली चैप्लिन यानी हम सब’ से लिया गया है। इसके लेखक श्री विष्णु खरे हैं। प्रसंग- इस गद्यांश में लेखक प्रसिद्ध भारतीय फिल्म अभिनेता राजकपूर के एक साहसिक प्रयोग के बारे में बता रहा है।
व्याख्या- चार्ली का सौन्दर्य शास्त्र नितांत अभारतीय था फिर भी इसे दर्शकों तथा कला मर्मज्ञों से अपार स्वीकृति प्राप्त थी। इस स्थिति को ध्यान में रखकर, प्रसिद्ध भारतीय अभिनेता राजकपूर ने फिल्म निर्माण में एक बहुत साहसिक प्रयोग किया था। उनकी फिल्म ‘आवारा’ चार्ली की फिल्म ‘दि ट्रम्प’ का अनुवाद मात्र थी। इसे नई कला न कहकर, राजकपूर द्वारा चार्ली का भारतीयकरण मानना चाहिए। उस समय राजकपूर पर अनेक फिल्म निर्माताओं ने चार्ली की नकल करने का आरोप लगाया था। किन्तु राजकपूर ने इन आरोपों की तनिक भी परवाह नहीं की।
राजकपूर की फिल्मों ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ के बनने से पहले भारतीय फिल्मों में फिल्म के नायकों पर हँसने की और स्वयं नायकों द्वारा अपने आप पर हँसने की परंपरा नहीं थी। सन् 1953 और 1957 के बीच जब चार्ली अपनी ‘गैर ट्रंप नुमा’ अंतिम फिल्में बना रहे थे तब राजकपूर चैप्लिन के नए अवतार के रूप में स्वयं को ढाल रहे थे।
विशेष- (1) राज कपूर द्वारा चार्ली के अनुकरण में जो फिल्में ‘आवारा’ और ‘श्री 420’ बनाई गर्यो, उन्होंने भारतीय फिल्म निर्माण के क्षेत्र में एक क्रांति उत्पन्न कर दी। (2) भाषा में मिश्रित शब्दावली का सहज प्रयोग हुआ। है। (3) शैली विवरणात्मक और परिचयात्मक है।
कक्षा 12 हिंदी आरोही पाठ 15 चार्ली चैप्लिन यानी हम सब के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. लेखक ने ऐसा क्यों कहा है कि चैप्लिन पर करीब 50 वर्षों तक काफी कुछ कहा जाएगा ?
उत्तर- चैप्लिन की फ़िल्म-कला को सामने आए अभी पौन शताब्दी ही बीती है। इस समय में उसने समस्त विश्व के दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ी है तथा अनेक समीक्षकों ने उस पर विचार किए हैं। अभी-अभी उसकी कुछ नई रीलें मिली हैं। जिनकी जाँच-पड़ताल अभी होना शेष है । अत: चार्ली का संपूर्ण मूल्यांकन करने में अभी पचास वर्षों का समय लग सकता है।
प्रश्न 2. चैप्लिन ने न सिर्फ फिल्म-कला को लोकतांत्रिक बनाया बल्कि दर्शकों की वर्ग तथा वर्ण-व्यवस्था को तोड़ा । इस पंक्ति में लोकतांत्रिक बनाने का तथा वर्ण-व्यवस्था तोड़ने का क्या अभिप्राय है ? क्या आप इससे सहमत हैं ?
उत्तर- फ़िल्म-कला को लोकतांत्रिक बनाेने का अर्थ है फ़िल्मों में सामान्य लोगों के सुख-दुःख का चित्रण करना तथा उसमें ऐसी विषय-वस्तु को प्रस्तुत करना जो वर्ग-भेद से हटकर समस्त दर्शकों का मनोरंजन कर सके । चार्ली की फिल्मों में किसी वर्ग विशेष का चित्रण नहीं है। उसकी फिल्में सम्पूर्ण मानव समाज की भावनाओं और विचारों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस प्रकार उसने फिल्म-कला को लोकतांत्रिक रूप दिया है। मैं चार्ली के प्रयास से पूरी तरह सहमत हूँ ।
प्रश्न 3. लेखक ने चार्ली का भारतीयकरण किसे कहा हैं और क्यों ? गाँधी और नेहरू ने भी उनका साथ क्यों चाहा ?
उत्तर- प्रसिद्ध भारतीय अभिनेता और निर्माता राजकपूर ने अपनी फिल्म ‘आवारा’ में चार्ली के अभिनय का अनुकरण प्रस्तुत किया था । लेखक ने इसे चार्ली का भारतीयकरण कहा है। गांधी जी और नेहरू जी चाल की आम आदमी को संबोधित करने वाली और मानवीय संदेश देने वाली फिल्मों से प्रभावित थे । इसीलिये वे चार्ली का संपर्क चाहते थे ।
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प्रश्न 4. लेखक ने किस कलाकृति और रस के सन्दर्भ में किसे श्रेयस्कर माना है ? और क्यों ? क्या आप कुछ ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जहाँ कई रस एक साथ आए हो ? उत्तर- लेखक ने किसी कलाकृति (रचना) में एक से अधिक रसों का साथ-साथ पाया जाना श्रेयस्कर माना है। कारण यह है कि जीवन में सुख-दुःख, उत्थान-पतन सभी आते हैं। अतः कला द्वारा सभी को प्रस्तुत किया जाना उसे श्रेष्ठ बनाता है ।
उदाहरण-प्रभु प्रलाप सुनि कान, विकल भए बानर निकर । आइ गए हनुमान, जिमि करुना में वीर रस ।।
अशनिपात से शापित उन्नत शत् शत् वीर क्षत विक्षत हत अचल शरीर गगन-स्पर्शी स्पद्ध धीर । हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार शस्य अपार हिल हिल, खिल खिल हाथ हिलाते । ‘निराला’
प्रश्न 5 जीवन की जद्दोजहद ने चार्ली के व्यक्तित्व को कैसे सम्पन्न बनाया ?
उत्तर- चार्ली की माँ को उसके पिता ने त्याग दिया था। वह दूसरे दर्जे की एक स्टेज अभिनेत्री थी। घर में भयानक गरीबी थी। माँ के पागल होने पर उसको सँभालना भी चार्ली की जिम्मेदारी थी। समाज के लोग चार्ली की उपेक्षा करते थे और उसका तिरस्कार करते थे । चार्ली की नानी भारतीय मूल की थीं। वे घुमंतू जाति की थी। लोग उन्हें ‘जिप्सी’ कहते थे। चार्ली की रगों में भी जिप्सी संस्कार थे । इन परिस्थितियों में चार्ली को अपने जीवन में बहुत संघर्ष करना पड़ा था । इस संघर्ष के परिणामस्वरूप ही उनके व्यक्तित्व का निर्माण हुआ था ।
प्रश्न 6. चार्ली चैप्लिन की फिल्मों में निहित हास्य का सामंजस्य भारतीय कला और सौन्दर्यशास्त्र की परिधि में क्यों नहीं आता ?
उत्तर- भारतीय परंपरा में कला में नौ रसों के प्रयोग की मान्यता चली आ रही है। एक ही रचना में एक से अधिक रसों की उपस्थिति और सामंजस्य भी प्रचलित रहा है लेकिन करुण और हास्य रस का सामंजस्य नहीं मिलता । यह भारतीय जीवन शैली के अनुकूल नहीं पड़ता । यही कारण है कि भारतीय कला और सौन्दर्य शास्त्र में चार्ली की फिल्मों जैसा त्रासदी, करुणा और हास्य का सामंजस्य नहीं मिलता ।
प्रश्न 7. चार्ली सबसे ज़्यादा स्वयं पर कब व क्यों हँसता है ?
उत्तर- चार्ली अपने ऊपर सबसे ज्यादा तब हँसता है जब वह स्वयं को गर्वोन्मत्त, आत्मविश्वास से भरा हुआ, सफलता के शिखर पर पहुँचा हुआ, सभ्यता, संस्कृति और समृद्धि की प्रतिमूर्ति बना हुआ पाता है । जब वह अपने को दूसरों से ज़्यादा शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ मान लेता है।