कक्षा 12 हिंदी आरोह पाठ 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा
श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा :- जीवन परिचय-डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के एक छोटे गाँव ‘महू’ में 1891 ई. में हुआ था। इनके पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल तथा माता का नाम भीमाबाई था। दलित जाति से सम्बन्धित होने के कारण आपको अनेक बाधाओं तथा अपमान का सामना करना पड़ा। आप पढ़ाई-लिखाई में होशियार थे। अनेक बाधाओं से लड़ते हुए आप अध्ययन में लगे रहे।
वित्तीय सहायता प्राप्त कर आप विदेशों में शिक्षा ग्रहण करने में सफल हुए। आपने कानून का अध्ययन किया और डाक्टरेट प्राप्त की। आप स्वतंत्र भारत में पहले कानून मंत्री बने। आप संविधान सभा के सदस्य रहे तथा भारतीय गणतंत्र के लिए संविधान बनाने में मदद की। आपने जाति प्रथा का विरोध किया तथा समतामूलक समाज की स्थापना के लिए संघर्ष किया। इस प्रसंग में आपने हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अपनाया। सन् 1956 में आपका देहान्त हो गया।
साहित्यिक परिचय-डॉ. अम्बेडकर हिन्दी के लेखक नहीं थे। आपने अँग्रेजी भाषा में ही पुस्तकें लिखीं। इन पुस्तकों का विषय भी साहित्यिक न होकर सामाजिक है।
रचनाएँ– आपकी अँग्रेजी भाषा में लिखी पुस्तकें अग्रलिखित हैं-द कास्ट्स इन इंडिया, देयर मेकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट, द अनटचेबल्स, हू आर दे ?, हू आर द शूद्राज, बुद्धा एंड हिज धम्मा, थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स, द प्रॉब्लम ऑफ द रफपी, द एबोलुशन ऑफ प्रोविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया, द राइज एंड फॉल ऑफ द हिंदू वीमैन, एनीहिलेशन ऑफ कास्ट आदि। इनसे सम्बन्धित साहित्य भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय द्वारा ‘बाबासाहब अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय’ नाम से 21 खण्डों में प्रकाशित हो चुका है।
हिन्दी आरोही पाठ श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा महत्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1. यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी ‘जातिवाद’ के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज ‘कार्य कुशलता’ के लिए श्रम-विभाजनको आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम-विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है इस तर्क के सम्बन्ध में पहली बात तो यही आपत्तिजनक है
कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परन्तु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती । भारत की जाति प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती, बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता ।
संदर्भ-प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ से लिया गया है। इसके लेखक ‘बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर’ हैं।
प्रसंग– इस अंश में आंबेडकर जाति प्रथा और श्रम विभाजन पर अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।
व्याख्या-आंबेडकर कहते हैं कि भारत में आधुनिक समय में भी लोग जातिवाद का पोषण करते हैं। यह बात समयानुकूल नहीं है। जातिवाद के समर्थक कई आधारों पर जाति प्रथा को उचित बताते हैं। पहला आधार यह है कि आज का सभ्य समाज कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है, इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है।
इस पक्ष के विरोध में आंबेडकर तर्क देते हैं कि जाति प्रथा से श्रम विभाजन तो होता है लेकिन यह श्रमिकों का भी विभाजन ‘ऊँच और नीच’ रूप में करती है। माना कि श्रम विभाजन हर सभ्य समाज की आवश्यकता है, किन्तु दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों को विभिन्न वर्गों में नहीं बाँटती। भारत में प्रचलित जाति प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन तो करती ही है, साथ ही विभाजिकता श्रमिकों को एक-दूसरे से ऊँचा और नीचा भी घोषित करती है। ऐसा संसार के किसी भी सभ्य समाज में नहीं देखा जाता।
विशेष – (1) आंबेडकर ने भारतीय जातिप्रथा को समाज में असमानता फैलाने का दोषी माना है। (2) भाषा सरल है और शैली विषय को सहज बोधगम्य बना रही है।
2. इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है । जाति-प्रथा का श्रम-विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता । मनुष्य की व्यक्तिगत । भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता ‘पूर्व लेख’ ही इसका आधार है । इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा
कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित’ कार्य को ‘अरुचि’ के साथ केवल विवशतावश करते हैं । ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है । ऐसी स्थिति में यहाँ काम करने वालों का न तो दिल ही लगता हो और न ही दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है ।
अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है । क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा रुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।
संदर्भ – प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘श्रम-विभाजन और जाति प्रथा’ से लिया गया है। इसके लेखक ‘बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर’ हैं।
प्रसंग आंबेडकर इस अंश में बता हैं कि प्रथा उद्योग- धंधों को हानि पहुँचाने वाली है। इसके साथ ही यह समाज की अर्थव्यवस्था को भी अव्यवस्थित करने वाली है।
व्याख्या-आंबेडकर कहते हैं कि जाति प्रथा पर आधारित श्रम विभाजन मनुष्य को पेशा चुनने की आजादी नहीं देता। वह उसे स्वच्छा से अपनी रुचि के पेशे को नहीं अपनाने देता।अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि आज के उद्योग-धंधों में गरीबी और श्रमिकों का उत्पीड़न भी इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितनी कि श्रमिकों द्वारा निर्धारित कार्य मजबूरी और अरुचि के साथ करना पड़ता है।
इस स्थिति के निरंतर चलने से श्रमिकों में काम के प्रति दुर्भावना उत्पन्न होने लगती है। वह टालू ढंग से कार्य करने लगते हैं। जब कार्य में श्रमिक का दिल-दिमाग नहीं लगेगा तो वह कभी भी एक कुशल श्रमिक नहीं बन पाएगा। स्पष्ट है कि जातिप्रथा समाज के आर्थिक पहलू को भी हानि पहुँचाती है। काम में स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि और आत्म- शक्ति को दबाकर श्रमिक को अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना दिया जाता है।
विशेष– (1) आंबेडकर अपने सहज तर्कों द्वारा जाति प्रथा को समाज के उद्योग-धंधों और अर्थव्यवस्था को हानि पहुँचाने वाली सिद्ध किया है। (2) भाषा सरल और स्पष्ट है। (3) शैली तार्किक है।
कक्षा 12 हिंदी आरोह पाठ 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. जाति प्रथा को श्रम-विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं ?
उत्तर– डॉ. आंबेडकर का कहना है कि जाति प्रथा श्रम विभाजन का एक रूप नहीं है । यह श्रम के बजाय मनुष्यों का अलग-अलग वर्गों में विभाजन है, जिसमें एक से दूसरे को नीचा समझा जाता है । यह विभाजन मनुष्य की रुचि और क्षमता पर आधारित नहीं है इसमें मनुष्य को अपनी इच्छानुसार पेशा करने तथा जरूरत होने पर पेशा बदलने की अनुमति नहीं है, भले ही इस कारण उसको भूखों ही क्यों न मरना पड़े ।
प्रश्न 2. जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती है ? क्या यह स्थिति आज भी है ?
उत्तर- जाति प्रथा के कारण मनुष्य का पेशा उसके जन्म से पूर्व ही उसकी जाति के आधार पर निर्धारित हो जाता है। उसको जीवनभर अपना पैतृक व्यवसाय ही करना पड़ता है। वह किसी अन्य पेशे में रुचि रखता हो और उसमें पारंगत भी हो तब भी वह अन्य पेशा नहीं अपना सकता । जब पेशा बदलना जरूरी हो गया हो, उसको पेशा बदलने की अनुमति नहीं होती । इससे उसके सामने भूखों मरने की स्थिति पैदा हो जाती है । अरुचिपूर्ण पेशे में होने से उसे धनोपार्जन में कठिनाई होती है तथा कभी-कभी बेरोजगारी का सामना करना पड़ता है ।
आंबेडकर के समय और आज के समय में बहुत अन्तर है। आज जातिगत पेशे को अपनाने की बाध्यता नहीं है। सभी जातियों के लोग परम्परागत पेशे को त्यागकर नए और अपनी रुचि के पेशों को अपना रहे हैं ।
प्रश्न 3. लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है ?
उत्तर- लेखक के मतानुसार ‘दासता’ वह स्थिति है जिसमें कोई कानूनी बाध्यता न होने पर भी मनुष्य को दूसरों द्वारा निर्धारित कर्त्तव्य तथा व्यवहार को अपनाना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता से भिन्न है । इसमें जाति प्रथा की तरह एक ऐसे वर्ग का उदय होना संभव है, जहाँ कुछ लोग अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशा अपनाने को बाध्य होते हैं ।
प्रश्न 4. शारीरिक वंश-परम्परा और सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्य में असमानता संभावित रहने के बाबजूद आंबेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनका क्या तर्क है ?
उत्तर- डॉ. आंबेडकर को ज्ञात है कि शारीरिक वंश-परंपरा तथा सामाजिक उत्तराधिकार की दृष्टि से मनुष्यों में समानता होना संभव नहीं है। परन्तु उनका आग्रह है कि समता को एक व्यावहारिक सिद्धांत माना जाना चाहिए ।
प्रत्येक व्यक्ति को समाज में अपनी प्रतिभा के विकास तथा क्षमता के प्रदर्शन का समान अवसर मिलना चाहिए। किसी वंश में जन्म लेना अथवा सामाजिक परंपरा मनुष्य के वश की बात नहीं है, अतः इस आधार पर भिन्न व्यवहार कदापि उचित नहीं है।
प्रश्न 5. सही में आंबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जतिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन- सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इससे आप सहमत हैं ?
उत्तर- डॉ. आंबेडकर जातिवाद का उन्मूलन चाहते हैं- ऐसा कहना भावनात्मक समत्व तथा मानवता की दृष्टि से आवश्यक है । उनका कहना है कि किसी व्यक्ति का किसी वंश में जन्म लेने में कोई योगदान नहीं होता है। मनुष्य किसी उच्च कुल में जन्म लेने मात्र से अच्छे व्यवहार का अधिकारी बन जाता है।
इसलिए आंबेडकर का यह कहना उचित ही है कि पहले जाति प्रथा का उन्मूलन हो, सभी को अपनी प्रतिभा के विकास के समान अवसर मिलें, तब उनके बीच स्वस्थ स्पर्धा के आधार पर उनके कार्यों का मूल्यांकन किया जाए । समान भौतिक स्थितियों तथा जीवन- सुविधाओं में जो श्रेष्ठ सिद्ध हो वही उत्तम व्यवहार का अधिकारी माना जाय ।
प्रश्न 6.आदर्श समाज के तीन तत्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं ? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं ? यदि नहीं, तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे / समझेंगी ?
उत्तर- डॉ. आंबेडकर के आदर्श-समाज के तीन तत्त्व हैं-
1. स्वतंत्रता, 2. समता, 3. भ्रातृता ।
भ्रातृता का अर्थ भाईचारा है। लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों का उल्लेख नहीं किया है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि सम्मिलित न करने से स्त्रियाँ समाज से बाहर हो जाएँगी। समाज तो स्त्री-पुरुष दोनों से मिलकर ही बनता है तथा आंबेडकर जैसा समतावादी विचारक स्त्री- विहीन पुरुष-प्रधान समाज की कल्पना कैसे कर सकता है।
‘भ्रातृता’ शब्द अर्थात् भाईचारा स्त्री-पुरुष दोनों के लिए समान रूप से प्रयोग हो सकता है। आंबेडकर ने ‘भ्रातृता’ शब्द से भाई और बहन दोनों को ही व्यक्त करना चाहा है। स्त्रियों के लिए कोई अलग शब्द गढ़ने की आवश्यकता उनको प्रतीत नहीं हुई लगती ।