RBSE Class 12 Hindi Aniwaray काले मेघा पानी दे
RBSE Class 12 Hindi Aniwaray
RBSE Class 12 Hindi Aniwaray :- जीवन-परिचय-डॉ. धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, सन् 1926 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था। आपकी शिक्षा इलाहाबाद में ही हुई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आपने एम. ए. पीएच. डी. किया। आप कुछ समय ‘संगम’ के सम्पादक रहे। इसके पश्चात् इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग में प्राध्यापक हो गए। सन् 1959 में आप ‘धर्मयुग’ के प्रधान सम्पादक बने। सन् 1972 में आपको भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से अलंकृत किया गया। सन् 1997 में आपका देहावसान हो गया।
साहित्यिक परिचय– डॉ. भारती विद्यार्थी जीवन से ही लेखन कार्य करने लगे थे। कहानी, उपन्यास, नाटक, समीक्षा, निबन्ध आदि गद्य विधाओं पर आपने कुशलतापूर्वक लेखनी चलाई है। आपने सम्पादक के रूप में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। आपके सम्पादक काल में ‘धर्मयुग’ की उत्तरोत्तर हुई उन्नति सका प्रमाण है। आपकी भाषा परिमार्जित है, बोधगम्य है। आपकी भाषा तत्सम तद्भव, उर्दू, अंग्रेजी शब्दों तथा मुहावरों के कारण समृद्ध है। आपने र्णनात्मक, भावात्मक, समीक्षात्मक, हास्य व्यंग्यात्मक आदि शैलियों का प्रयोग किया है।
कृतियाँ– डा. भारती की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं: सन्यास-गुनाहों का देवता, सूरज का सातवाँ घोड़ा, ग्यारह सपनों का देश कहानी-संग्रह-चाँद और टूटे हुए लोग, बन्द गली का आखिरी मकान, गाँव, स्वर्ग पृथ्वी। नाटक-एकांकी-नदी प्यासी थी, नीली झील। निबन्ध- कहनी-अनकहनी, ठेले पर हिमालय, पश्यन्ति। आलोचना-मानव मूल्य और साहित्य व्य-ठंडा लोहा, कनुप्रिया, सात गीत वर्ष, अन्धायुग। सम्पादन-संगम, धर्मयुग । अनुवाद – देशान्तर ।
महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1. वे सचमुच ऐसे दिन होते जब गली-मुहल्ला, गाँव-शहर हर जगह लोग गरमी में भुनभुनकर त्राहिमाम कर रहे होते, जेठ के दसपा बीत कर आषाढ़ का पहला पखवारा भी बीत चुका होता पर क्षितिज पर कहीं बादल की रेख भी नहीं दीखती होती, कुएँ सूखने लगते, नलों में एक तो बहुत कम पानी आता और आता भी तो आधी रात को भी मानो खौलता हुआ पानी हो । शहरों की तुलना में गाँव में और भी हालत खराब होती थी।
जहाँ जुताई होनी चाहिए वहाँ खेतों की मिट्टी सूखकर पत्थर हो जाती, फिर उसमें पपड़ी पड़ कर जमीन फटने लगती, लू ऐसी कि चलते-चलते आदमी आधे रास्ते में लू खाकर गिर पड़े। ढोर-ढंगर प्यास के मारे मरने लगते लेकिन बारिश का कहीं नाम-निशान नहीं, ऐसे में पूजा-पाठ, कथा- विधान सब करके लोग जब हार जाते तब अंतिम उपाय के रूप में निकलती यह इंदर सेना ।
सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2′ में संकलित पाठ “काले मेघा पानी दे’ से लिया गया है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं।
प्रसंग– इस अंश में लेखक अपनी किशोरावस्था के उन दिनों का वर्णन कर रहा है जब भीषण गर्मी से लोग अत्यन्त व्याकुल हो जाया करते थे ।
व्याख्या– लेखक कहता है कि भयंकर गर्मी के वे दिन इतने कष्टदायक होते थे कि लोगों की जान पर आ बनती थी। गली, मोहल्ले, गाँव, शहर सभी जगहों पर गर्मी के ताप से व्याकुल होकर जान बचाने में लग जाते थे। जेठ के महीने के बेहद तपने वाले दस दिन बीत जाने पर जब आषाढ़ के पन्द्रह दिन भी सूखे निकल जाते थे और आकाश से दूर-दूर तक बादलों का कोई अता-पता दिखाई नहीं पड़ता था तो लोगों का धैर्य टूटने लगता था।
धीरे-धीरे कुएँ सूखने लगते और नलों में भी बहुत कम पानी आने लगता था। यह पानी भी रात के बारह बजे आता था और गर्मी से खौलता हुआ होता था। इन दिनों में गाँवों की दशा नगरों से भी बुरी हो जाया करती थी। खेतों की मिट्टी सूखकर पत्थर जैसी कठोर हो जाती थी। उस पर पपड़ी की परत छा जाती थी और फिर धरती जगह-जगह से दरकने लगती थी।
लू ऐसी गरम होती थी कि रास्ता चलना मृत्यु को निमंत्रण देने के समान हो जाता था। गाँवों में पशु प्यास से तड़प कर मरनें लगते थे। जब इतने पर भी वर्षा की कोई संभावना नजर नहीं आती थी तो पूजा-पाठ और कथा इत्यादि का सहारा लिया जाता। जब कोई भी टोना-टोटका, तंत्र-यंत्र काम नहीं करता था तब इस ‘इन्दर सेना’ का आश्रय लिया जाता था।
विशेष– (1) लेखक ने सरल भाषा-शैली में गर्मी की भीषणता का यथार्थ चित्रण किया है।
(2) हिन्दी गद्य की ‘संस्मरण’ विधा में लेखक की प्रवीणता प्रमाणित हो रही है।
2. मगर मुश्किल यह थी कि मुझे अपने बचपन में जिससे सबसे ज्यादा प्यार मिला ये थी जीजी यूँ मेरी रिश्ते में कोई नहीं थी । उम्र में मेरी माँ से भी बड़ी थी, पर अपने लड़के-बहू सबको छोड़कर उनके प्राण मुझी में बसते थे और वे थीं उन तमाम रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों, पूजा-अनुष्ठानों की खान जिन्हें कुमार-सुधार सभा का यह उपमंत्री अंधविश्वास कहता था, और उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता था ।
पर मुश्किल यह थी कि उनका कोई पूजा-विध न कोई त्योहार अनुष्ठान मेरे बिना पूरा नहीं होता था। दीवाली है तो गोबर और कौड़ियों से गोवर्धन और सतिया बनाने में लगा हैं, जन्माष्टमी है तो रोज आठ दिन की झौकी तक को सजाने और पंजीरी बाँटने में लगा है, हर-छठ है तो छोटी रंगीन कुल्हियों में भूजा भर रहा हूँ। किसी में भुना चना, किसी में भुनी मटर, किसी में भुने अरवा चावल, किसी में भुना गेहूँ । जीजी यह सब मेरे हाथों से कराती, ताकि उनका पुण्य मुझे मिले। केवल मुझे।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘काले मेघा पानी दे’ से लिया गया है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं।
प्रसंग– लेखक इस गद्यांश में अपने मन की द्विविधा का उल्लेख कर रहा है वह था कट्टर आर्य समाजी और उस पर प्यार बरसाने वाली ‘जीजी’ थी रोति-रिवाजों, त्यौहारों, पूजा आदि को पूरे विधि विधान से मनाने वाली। फिर भी उसे उन सारे अनुष्ठानों में भाग लेना पड़ता था।
व्याख्या– लेखक कहता है कि वह बचपन से ही आर्यसमाजी विचारधारा में विश्वास करता आया था वह ‘कुमार सुधार सभा का उपमंत्री था। यह संस्था इन तीज-त्यौहारों और पूजा-अनुष्ठानों को अंधविश्वास मानती थी। लेखक की द्विविधा यह थी कि उसे बचपन में उस ‘जीजी’ का सबसे 1 अधिक प्यार मिला था जो रिश्ते में उसकी कोई नहीं लगती थीं। उनकी आयु लेखक की माँ से भी अधिक थी,
जीजी अपने बेटे-बहू आदि सभी को छोड़कर अपना सारा लाड़ लेखक पर ही बरसाती थीं। जीजी के प्राण जैसे लेखक में बसते थे। जीजी उन सारे तीज-त्यौहारों, पूजा कथा आदि की ज्ञाता थीं, जिन्हें लेखक अंधविश्वास मानता था वह ‘कुमार सुधार सभा’ का उपमंत्री था और इन सभी अंधविश्वासों को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता था।
समस्या यह थी कि जीजी का कोई त्यौहार या अनुष्ठान लेखक के बिना पूरा नहीं होता था। वह हर त्यौहार में पूरे मन से सहयोग किया करता था। दीवाली पर वह गोबर और कौड़ियों से गोवर्धन तथा सतिया बनाता था। जन्माष्टमी पर आठ दिनों तक वह नई नई झाँकियाँ सजाता था
और पंजीरी बाँटा करता था। हर छठ के त्यौहार पर वह रंग-बिरंगी छोटी-छोटी कुल्हियों में भुने हुए मटर, चना, अरवा चावल और भुने गेहूं भरा करता था। ये सारे काम जीजी लेखक से ही कराया करती थीं ताकि सारा पुण्य केवल लेखक को ही मिले। जीजी का लेखक पर अतुलनीय प्यार था।
विशेष (1) लेखक ने अपने मन के अन्तर्द्वन्द्र को रोचक शैली में प्रस्तुत किया है।
(2) अंधविश्वासों पर व्यंग्य किया है।
(3) भाषा-शैली विषय के अनुरूप है।
3. कुछ देर चुप रही जीजी, फिर मठरी मेरे मुँह में डालती हुई बोलीं, “देख बिना त्याग के दान नहीं होता । अगर तेरे पास लाखों-करोड़ों रुपये हैं और उसमें से तू दो-चार रुपये किसी को दे दे तो यह क्या त्याग हुआ । त्याग तो वह होता है कि जो चीज तेरे पास भी कम है, जिसकी तुझको भी जरूरत है
तो अपनी जरूरत पीछे रखकर दूसरे के कल्याण के लिए उसे दे तो त्याग तो वह होता है, दान तो वह होता है, उसी का फल मिलता है ।” “फल-वल कुछ नहीं मिलता सब ढकोसला है।” मैंने कहा तो, पर कहीं मेरे तर्कों का किला पस्त होने लगा था। मगर मैं भी जिद्द पर अड़ा था ।
सन्दर्भ– प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘काले मेघा पानी दे’ से लिया गया है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं।
प्रसंग – लेखक इन्दर सेना से पानी न फेंकने की जिद पर अड़ा हुआ है और जीजी उसे समझा रही है।
व्याख्या– लेखक मेंढ़क-मंडली पर पानी न उड़ेलने की जिद पर अड़ा हुआ था। कुछ देर चुप रहने के बाद जीजी ने लेखक के मुँह में मठरी डाली और बोली कि बिना त्याग के दान नहीं होता। अगर उसके (लेखक के) पास लाखों-करोड़ों रुपए हैं और वह उनमें से दो-चार रुपए किसी को दे दे तो वह दान नहीं होगा, बिना त्याग या कष्ट के दिया गया धन, दान नहीं कहलाता।
त्याग वह होता है जब हमारे पास कोई वस्तु कम है, हमें भी उस वस्तु की आवश्यकता है फिर भी हम अपनी जरूरत भुलाकर दूसरे की जरूरत पूरी करें। दान भी वही कहलाता है, जो परोपकार की भावना से दिया जाता है, उसी दान का सुफल प्राप्त होता है।
जीजी के समझाने पर लेखक भीतर-ही-भीतर अपने तर्कों की हार महसूस कर रहा था लेकिन फिर भी, अपनी बात ऊपर रखने के लिए उस जलदान को ढकोसला ही बताता रहा।
विशेष– (1) जीजी द्वारा त्याग और दान का महत्व बड़ी गहराई से समझाया गया है। किसी भी आस्था का अंध – विरोध उचित नहीं होता।
(2) भाषा सरल है और शैली व्याख्यात्मक है।
4. हम आज देश के लिए करते क्या हैं? माँगें हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी हैं पर त्याग का कहीं नाम-निशान नहीं है । अपना स्वार्थ आज एकमात्र लक्ष्य रह गया है। हम चटखारे लेकर इसके या उसके भ्रष्टाचार की बातें करते हैं पर क्या कभी हमने जाँचा है।
कि अपने स्तर पर अपने दायरे में हम उसी भ्रष्टाचार के अंग तो नहीं बन रहे हैं ? काले मेघा दल के दल उमड़ते हैं, पानी झमाझम बरसता है, पर गगरी फूटी की फूटी रह जाती है, बैल पियासे के पियासे रह जाते हैं ? आखिर कब बदलेगी यह स्थिति ?
सन्दर्भ– प्रस्तुत गद्यांग पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘काले मेघा पानी दे’ से लिया गया है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं।
प्रसंग- लेखक देशवासियों को देश के प्रति उनके कर्त्तव्यों का स्मरण करा रहा है।
व्याख्या- आज देश और सरकार से आशा की जाती है कि वे देश के नागरिकों की सभी सुख-सुविधाओं का प्रबंध करें। पर क्या हम देशवासी कभी यह सोचते हैं कि वे देश के लिए क्या कर रहे हैं। हर क्षेत्र का नागरिक देश से बड़ी-बड़ी उम्मीद लगाए बैठा है, पर उसमें देश के लिए त्याग की भावना नाम मात्र को भी नहीं मिलती।
सभी लोग इस चेष्टा में लगे हैं कि कैसे उनके स्वार्थों की पूर्ति हो। लोग स्वयं को बड़े ईमानदार समझते हुए दूसरों के दुर्गुणों का बखान किया करते हैं। इस काम में उन्हें बड़ा रस आता है। किस-किस ने क्या-क्या भ्रष्टाचार और घोटाले किये हैं यह तो हमें पता है पर हम अपने भीतर झाँक कर नहीं देखते कि कहीं वे स्वयं भी तो इस भ्रष्टाचार में सहायक नहीं हैं। हम सभी जाने-अनजाने इस भ्रष्ट आचरण को बढ़ावा दे रहे हैं।
यही कारण है कि देश पूरी गति से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। अनेक योजनाएँ बनती हैं। लाखों-करोड़ों की धनराशि व्यय होती है लेकिन जनता के हाथ कुछ नहीं पड़ता। उसकी झोली तो खाली की खाली ही रह जाती हैं। मेघ खूब बरसते हैं
पर जनता के दुर्भाग्य की फूटी गगरी रीती की रीती रह जाती। इतनी वर्षा में भी बैल बेचारे प्यासे रह जाते हैं। क्या देश की यह दुर्दशा कभी दूर होगी ? लोग देश के प्रति अपने कर्तव्यों का दृढ़ता से पालन करेंगे? कोई नहीं जानता।
विशेष– (1) लेखक ने इस अंश में देशवासियों की घटिया मानसिकता पर तीखा व्यंग्य प्रहार किया है।
(2) देश-प्रेम के लिए त्याग, देश के प्रति कर्तव्यों का पालन, इन गुणों का भारतीय समाज में अभाव दृष्टिगोचर हो रहा है।
(3) लेखक की अभिलाषा है कि यह स्थिति बदले।
(4) भाषा सरल हैं। शैली व्यंग्यात्मक है।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
पाठ के साथ
प्रश्न 1. लोगों ने लड़कों की टोली को ‘मेढक मण्डली’ नाम किस आधार पर दिया ? यह टोली अपने आपको ‘इंदर सेना’ कहकर क्यों बुलाती थी ?
उत्तर– गाँव के कुछ लड़के नंगे बदन केवल कच्छा या लँगोटी पहने मकानों के आगे आते थे और लोग उनको पानी से तरबतर कर देते थे तब वे कीचड़ में लेटकर इन्द्र देवता से पानी की गुहार लगाते थे ‘काले मेघा पानी दे …..’। कुछ लोगों को इन लड़कों के यह कार्य अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा असभ्यतापूर्ण प्रतीत होते थे
वे उनका स्वागत गालियों से करते थे तथा घृणावश उनको ‘मेढक मण्डली’ कहते थे । लड़कों का यह दल वर्षा के देवता इन्द्र से पानी बरसाने की गुहार लगाता था। लोगों का मानना था कि उन पर पानी फेंकने से इन्द्र देवता प्रसन्न होकर जल की वर्षा करते हैं। इस कार को इंदर सेना कहा जाता था।
प्रश्न 2. जीजी ने ‘इन्दर सेना’ पर पानी फेंके जाने को किस तरह सही ठहराया ?
उत्तर– जीजी ने लेखक को बताया कि हमें कुछ पाने के लिए थोड़ा-सा त्याग करना पड़ता है । किसान 30-40 मन गेहूँ उगाने के लिए पाँच-छह सेर अच्छा गेहूँ बीज के रूप में खेत में बो देता है। इसी प्रकार इन्द्र देवता से वर्षा का जल पाने के लिए थोड़ा-सा पानी इन्दर सेना पर फेंकना एक प्रकार से पानी की बुवाई है। इसके बदले में इन्द्र देवता वर्षा ऋतु में बादलों से झमाझम पानी बरसाते हैं ।
प्रश्न 3. ‘पानी दे, गुड़धानी दे’ मेघों से पानी के साथ-साथ गुड़धानी की माँग क्यों की जा रही है ?
उत्तर– ‘इन्दर सेना’ के लड़के पुकारते थे- “काले मेघा पानी दे, पानी दे गुड़धानी दे।” जल को जीवन कहा गया है। पीने, नहाने धोने तथा फसलें उगाने के लिए पानी बहुत जरूरी है। गुड़धानी गुड़ तथा चना आदि से बना एक प्रकार का लड्डू है।
गन्ना और चना खेत में उगाने के लिए वर्षा का पानी जरूरी है। यदि वर्षा नहीं होगी तो चना और गन्ना भी नहीं उगेंगे। बिना गन्ने के गुड़ भी नहीं बनेगा और न बनेगी गुड़धानी । अतः लड़के ‘पानी दे गुड़धानी दें’ पुकार कर पानी के साथ गुड़धानी की माँग भी कर रहे थे ।
प्रश्न 4. ‘गगरी फूटी बैल पियासा’ इन्दरसेना के इस खेल गीत बैलों के प्यासा रहने की बात क्यों मुखरित हुई है ?
उत्तर-इन्दर सेना के खेल गीत में मेघों के देवता इन्द्र को बताया गया है कि पानी के अभाव में बैल प्यासे हैं। पहले खेत जोतने, बोने, सिंचाई के लिए पानी खींचने तथा बालों से अन्न के दानों को अलग करने आदि अनेक काम बैलों से ही लिए जाते थे।
जब बैलों को पीने के लिए पानी ही नहीं मिलेगा तो वे काम नहीं करेंगे और अन्न भी पैदा नहीं होगा। इस कठिनाई की ओर संकेत करने के लिए ही बैलों के प्यासा रहने की बात कही गई है।
प्रश्न 5. ‘इंदर सेना’ सबसे पहले गंगा मैया की जय क्यों बोलती है ? नदियों का भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश में क्या महत्त्व है ?
उत्तर– ‘इंदर सेना’ सबसे पहले गंगा मैया की जय बोलती है क्योंकि गंगा भारत की प्रमुख तथा पवित्र नदी है। भारत में उसको माँ के समान पूज्य और उच्च स्थान प्राप्त है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति नदियों के तट पर ही विकसित हुई है।
मथुरा, प्रयाग, वाराणसी, पाटलिपुत्र इत्यादि नगर नदियों के तट पर ही बसे हैं। अनेक देव स्थान तथा तीर्थ नदियों के तट पर ही हैं। भारतीय संस्कृति के युगपुरुष तथा अवतार राम और कृष्ण का सम्बन्ध सरयू तथा यमुना नदियों से ही है। हम नदियों के बिना भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की कल्पना भी नहीं कर सकते।
प्रश्न 6.रिश्तों में हमारी भावना-शक्ति का बँट जाना विश्वासों के जंगल में सत्य की राह खोजती हमारी बुद्धि की शक्ति को कमजोर करता है। पाठ में जीजी के प्रति लेखक की भावना के संदर्भ में इस कथन के औचित्य की समीक्षा कीजिए ।
उत्तर– लेखक पर आर्य समाज का प्रभाव था। वह कुमार सुधार सभा का उपमंत्री था। इंदर सेना पर पानी फेंकना उसे अन्धविश्वास तथा पानी की बर्बादी लगता था। जीजी लेखक को बहुत चाहती थी। उनका विश्वास लेखक के मत के विपरीत था।
जीजी के स्नेह के प्रभाव से लेखक अनेक कार्य उनको प्रसन्न करने के लिए करता था। वह गोवर्धन सजाता, सतिया बनाता तथा जन्माष्टमी की झाँकियाँ सजाता था। लेखक के मत में ये बातें अन्धविश्वास थीं और वह उनको मिटाना चाहता था।
परन्तु प्रधानता जीजी की भावना को ही प्राप्त होती थी और लेखक के तर्क तथा बुद्धि उसके आगे परास्त हो जाते थे। अतः यह कथन उचित ही प्रतीत होता है।