NCERT Solutions For Class 12 Hindi Aroh Chapter 17 Shiris ke Phool – शिरीष के फूल
Shiris ke Phool
जीवन परिचय– आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म उत्तर प्रदेश के ‘दुबे का बलिया’ जिले के छपरा नामक गाँव में सन् 1907 ई. में हुआ था। आपके पिता अनमोल द्विवेदी तथा माता ज्योतिष्मती थीं। प्रारम्भिक शिक्षा घर पर प्राप्त करने के बाद आपने काशी तथा लखनऊ विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा प्राप्त को। बाद में आप शांति निकेतन काशी विश्वविद्यालय तथा पंजाब विश्वविद्यालय में शिक्षक रहे। आपको भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। 19 मई सन् 1979 को आप दिवंगत हुए।
साहित्यिक परिचय- द्विवेदी जी मूर्धन्य ललित निबन्धकार हैं। आपने इतिहास, समालोचना, उपन्यास आदि में अपनी साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दिया है। भारतीय संस्कृति, इतिहास, दर्शन आदि आपके प्रिय विषय रहे हैं। आपकी भाषा में तत्सम शब्दों के साथ देशज एवं उर्दू, फारसी, अंग्रेजी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। शैली वर्णनात्मक, विचारात्मक, भावात्मक, व्यंग्य-विनोद, उद्धरणात्मक, समीक्षात्मक आदि है। साहित्य आपके लिए मनुष्यों के मानसिक और चारित्रिक उन्नयन का साधन है।
रचनायें– अशोक के फूल, कुटज (निबन्ध) वाणभट्ट की आत्मकथा, अनामदास का पोथा (उपन्यास)। कबीर, सूर-साहित्य, (समीक्षा), संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो, नाथसिद्धों की बानियाँ, (विश्वभारती) आदि।
1.
जेठ की जलती धूप में, जबकि धरित्री निर्धूम अग्निकुंड बनी हुई थी, शिरीष नीचे से ऊपर तक फूलों से लद गया था। कम फूल इस प्रकार की गरमी में फूल सकने की हिम्मत करते हैं कर्णिकार और आरग्वध (अमलतास) की बात मैं भूल नहीं रहा हूँ। वे भी आस-पास बहुत हैं । लेकिन शिरीष के साथ आरग्वध की ‘तुलना नहीं की जा सकती । वह पंद्रह-बीस दिन के लिए फूलता है, वसंत ऋतु के पलाश की भाँति ।
कबीरदास को इस तरह पंद्रह दिन के लिए लहक उठना पसंद नहीं था । यह भी क्या कि दस दिन फूले और फिर खंखड़ के खंखड़- ‘दिन दस फूला फूलिके खंखड़ भया पलास !’ ऐसे दुमदारों से तो लँडूरे भले । फूल है शिरीष । वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है । आषाढ़ तक जो निश्चित रूप से मस्त बना रहता है। मन रम गया तो भरे भादों में भी निर्घात फूलता रहता है । जब उमस से प्राण उबलता रहता है और लू से हृदय सूखता रहता है, एकमात्र शिरीष कालजयी अवधूत की भाँति जीवन की अजेयता का मंत्र प्रचार करता रहता है ।
संदर्भ-प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2′ में संकलित पाठ’शिरीष के फूल’ से लिया गया है। इसके लेखक ‘श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘ हैं। प्रसंग – लेखक भीषण ग्रीष्म में भी फूलों से लदे शिरीष की विशेषताएँ बता रहा है।
व्याख्या-लेखक जहाँ बैठकर इस निबंध को लिख रहा था वहाँ चारों ओर कई शिरीष के वृक्ष थे। जो भीषण गर्मी में फूलों से लदे हुए थे। टमा चल रहा था। धूप के रूप में मानो आग बरस रही थी। ऐसा लगता था कि यह धरती एक अग्नि कुंड है, जिसमें से धुआँ नहीं निकल रहा था। ऐसी विपरीत स्थिति में भी शिरीष फूलों से लदा हुआ था।
ऐसे बहुत कम वृक्ष है जो ऐसी विकट गर्मी में भी फूलों से भरे रहें। कन्नेर और अमलतास भी गर्मी में ही फू हैं। लेखक का कहना है कि शिरीष के साथ अमलतास के फूलों की नहीं की जा सकती। अमलतास केवल पन्द्रह-बीस दिन के लिए फूलता है उसी तरह जैसे पलाश वसंत ऋतु में फूला करता है।
कबीर दास ने भी इस तरह पंद्रह-बीस दिन फूलने की हँसी उड़ाई है। यह भी कोई फूलना है कि दस दिन फूले और फिर वही पतझर का नजारा बन गए। कबीर कहते हैं कि पलाश का वृक्ष भी कोई वृक्ष है जो दस दिन के लिए फूलता है और फिर पुष्प-पत्र विहीन हो जाता है। लेखक एक लोकोक्ति के माध्यम से कुछ दिन के लिए फूलकर शोभाहीन हो जाने वालों की हँसी उड़ा रहा है।
लेखक कहता है कि जिन पक्षियों की पूँछ सुंदर होती है वे मन को लुभाते हैं। इसी तरह कन्नेर अमलतास और पलाश भी जब फूलते हैं तो देखकर मेन गद्गद हो जाता है। जैसे पूँछ कटा पक्षी बड़ा भद्दा लगता है उसी प्रकार पुष्पविहीन वृक्ष भी मन में वितृष्णा ही उत्पन्न करते हैं। लेखक कटाक्ष करता है कि इन धूमधाम के साथ खिलकर कुछ ही दिनों में नंगे हो जाने वाले फूलों से तो बिना फूलों वाले वृक्ष अच्छे हैं, कम से कम वे सदा एक ही स्वरूप में तो दिखते हैं।
फूलों में अगर कोई फूल है तो वह शिरीष ही है। वसंत के आते ही यह फूलों से भर जाता है। आषाढ़ तक तो वह फूलों से मस्त बना ही रहता है, पर कभी-कभी तो वह भादों के मास में भी शोभा में कमी लाए बिना ही फूला रहता है।
जब सारी धरती उमस से व्याकुल रहती है। जब वस्तुएँ हृदय को डर से सुखाए रखती है तब भी शिरीष उस समय भी काल पर विजय पा लेने वाले संयमी हठ योग साधक की भाँति मानो घोषणा किया करता है कि जीवन अजेय है उसे पराजित नहीं किया जा सकता।
विशेष– (1) शिरीष के पुष्प चार मास तक निर्विघ्न अपने शोभा से मन को आनंदित किया करते हैं और मानो यह संदेश दिया करते हैं कि मस्त होकर जिओ (2) भाषा सरल है और शैली व्यंग्यात्मक है।
2. मैं सोचता हूँ कि पुराने की यह अधिकार लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती ? जरा और मृत्यु, ये दोनों ही जगत् के अतिपरिचित और अतिप्रामाणिक सत्य हैं। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनकी सच्चाई पर मुहर लगाई थी- ‘धरा को प्रमान यही तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना !’ में शिरीष के फूलों को देखकर कहता हूँ कि क्यों नहीं फलते ही समझ लेते बाबा कि झड़ना निश्चित है ! सुनता कौन है ?
महाकालदेवता सपासप कोड़े चला रहे हैं, जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं, जिनमें प्राणकण थोड़ा भी ऊर्ध्वमुखी है, वे टिक जाते हैं। दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है। मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा जाएँगे भोले हैं वे हिलते डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे !
संदर्भ-प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘शिरीष के फूल’ से लिया गया है। इसके लेखक ‘श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी ‘ हैं। प्रसंग-द्विवेदी जी इस अंश में संदेश दे रहे हैं कि सचल रहो, स्थान बदलते रहो, नहीं तो काल देवता के कोड़े की मार पड़ेगी और धराशायी हो जाओगे।
व्याख्या – लेखक सोचता है कि पुराने या बूढ़े लोगों की पदलिप्सा समय रहते क्यों नहीं सच को स्वीकार करती है? संसार में दो ही महा सत्य हैं- जरा (बुढ़ापा) और मृत्यु इन दोनों सत्यों से संसार के लोग भलीभाँति परिचित हैं। ये दोनों सत्य अति प्रामाणिक भी है। इन दो परम सत्यों पर तुलसीदास ने बड़े दुख के साथ अपनी मोहर लगाई थी।
तुलसी कहते हैं कि संसार में दो बातें प्रामाणिक हैं, फलेगा उसे एक दिन झड़ना ही होगा और जो बुद्धिआएगा उसको मृत्यु भी निश्चित है लेकिन लोग इन दो महा सत्यों से आँखें चुराते रहते हैं।
द्विवेदी जी शिरीष के फूलों को देखकर कहते हैं कि फल आते ही क्यों नहीं समझ लेते कि झड़ना निश्चित है। लेकिन उनकी चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं देता। महाकाल (मृत्यु) अपना कोड़े का निरंतर प्रहार कर रहे हैं। बूढ़े और दुर्बल झड़ रहे हैं। जिनमें सजीवता थोड़ी भी बाकी है और ऊपर की ओर ले जाने वाली है. ये कुछ समय के लिए टिके रहते हैं।प्रबल जिजीविषा और सर्वव्यापी कालरूपी अग्नि का संघर्ष निरंतर चल रहा है।
मूर्ख लोग समझते हैं कि वे जिन पदों पर आसीन है वहीं पर देर तक टिके रहेंगे तो काल के प्रहार से बच जाएँगे। ये लोग बड़े भोले हैं। ऐसा कभी भी संभव नहीं है। अत: एक ही स्थान को दृढ़पूर्वक मत पकड़े रहो। सचल रही। स्थान बदलते रहो। सामने की ओर, सत्य की ओर मुँह किए रहोगे तो काल के प्रहार से कुछ समय बच्चे भी रह सकते हो। यदि एक स्थान पर ही जमे रहने की सोचोगे तो फिर मरना ही होगा।
विशेष – (1) ” आएगा सो जायगा, राजा रंक फकीर ” इस महासत्य को मत भुलाओ। उपनिषद भी यही कहती है-‘चरेवैति चरेवैति’ अर्थात् निरंतर चलते रहो। यही संदेश इस गद्यांश में निहित है। (2) भाषा में तत्सम और तद्भव शब्दों का सुमेल है। (3) शैली संबोधनात्मक और सचेत करने वाली है।
Class 12 Hindi Aroh Chapter 17 Shiris ke Phool Questions & Answer
प्रश्न 1. लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत (संन्यासी) की तरह क्यों माना है ?
उत्तर– कालजयी उसे कहते हैं जो समय के परिवर्तन से अप्रभावी रहता है। जीवन में आने वाले सुख-दुःख, उत्थान-पतन, हार-जीत उसे प्रभावित नहीं कर पाते। वह इनमें संतुलन बनाकर जीवित रहता है। यह गुण अवधूत अर्थात् संन्यासी में होते हैं। शिरीष का वृक्ष भी भीषण गर्मी और लू में हरा-भरा और फूलों से लदा रहता है। इस कारण इसे कालजयी अवधूत की तरह माना गया है।
प्रश्न 2. हृदय की कोमलता को बचाने के लिए व्यवहार की कठोरता भी कभी-कभी जरूरी हो जाती है प्रस्तुत पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर– ‘शिरीष के फूल’ शीर्षक निबन्ध में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शिरीष के वृक्ष को भीतर से सरस और ऊपर से कठोर माना है। उसके भीतर की कोमलता उसके फूलों और हरे-भरे पल्लवों में प्रकट होती है लेकिन वह इस सरसता की रक्षा कठोर सहनशीलता से करता है। भीषण गर्मी में भी मस्त और हरा भरा रहता है। उसके इस कठोर आवरण में ही उसकी सरसता सुरक्षित रहती है।
प्रश्न 3. द्विवेदी जी ने शिरीष के माध्यम से कोलाहल व संघर्ष से भरी जीवन-स्थितियों में अविचल रहकर जिजीविषु बने रहने की सीख दी है। स्पष्ट करें।
उत्तर- शिरीष जीवन की कठोर परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता । जब चारों ओर गर्मी का भीषण ताप धरती को जलाया करता है। और तेज लू हृदय को सुखाती है, शिरीष हरा-भरा रहता है तथा सुन्दर फूलों से लदा रहता है। विपरीत स्थिति उसकी जीने की प्रबल इच्छा को मिटा नहीं पाती । इस प्रकार शिरीष विपरीत परिस्थितियों में भी मस्त रहने की शिक्षा देता है। मनुष्य को भी अपने जीवन में विपरीत परिस्थितियों में अविचलित रहकर जीना चाहिए ।
प्रश्न 4. ‘हाय यह अवधूत आज कहाँ है ! ऐसा कहकर लेखक ने आत्मबल पर देह-बल के वर्चस्व की वर्तमान सभ्यता के संकट की ओर संकेत किया है। कैसे ?
उत्तर- लेखक ने उपर्युक्त वाक्य महात्मा गाँधी जी के लिए कहा है। आज देश में हिंसा, असहिष्णुता और कठोरता का वातावरण व्याप्त है। ये सभी देहबल के प्रतीक है। आत्मबल अर्थात् प्रेम, अहिंसा, शान्ति आदि गुणों का सर्वत्र अभाव है। इससे सभ्यता के नष्ट होने का संकट खड़ा हो गया है। ऐसे समय में देश के मार्गदर्शन के लिए महात्मा गाँधी जैसे अवधूत की प्रबल आवश्यकता है। गाँधी जैसे विचारक ही देश को इस संकट से मुक्ति दिला सकते हैं। हाय वह अवधूत आज कहाँ है! कहकर लेखक ने देश की समस्याओं के समाधान के लिए गाँधीवादी विचारों की आवश्यकता पर बल दिया है।
प्रश्न 5. कवि (साहित्यकार) के लिए अनासक्त योगी की स्थिरप्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय एक साथ आवश्यक है। ऐसा विचार प्रस्तुत कर लेखक ने साहित्यकर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदण्ड निर्धारित किया है। विस्तारपूर्वक समझाएँ।
उत्तर – द्विवेदी जी का मानना है कि श्रेष्ठ साहित्यकार वही हो सकता है जिसमें सांसारिक माया मोह से मुक्त योगी के समान स्थितप्रज्ञता हो तथा विदग्ध प्रेमी का हृदय हो। ये दोनों परस्पर विरोधी गुण हैं और इनकी साधना आसान नहीं है। यह मानदण्ड बहुत ऊँचा है। स्थितप्रज्ञ योगी के पास विदग्ध प्रेमी का हृदय नहीं होता और प्रेमी का हृदय योगी के समान नीरस नहीं होता। एक साहित्यकार से इन विरोधी गुणों की अपेक्षा करके लेखक ने साहित्य कर्म के लिए बहुत ऊँचा मानदण्ड और आदर्श निर्धारित किया है ।
प्रश्न 6. सर्वग्रासी काल की मार से बचते हुए वही दीर्घजीवी हो सकता है, जिसने अपने व्यवहार में जड़ता छोड़कर नित बदल रही स्थितियों में निरन्तर अपनी गतिशीलता बनाए रखी है। पाठ आधार पर स्पष्ट करें ।
उत्तर-महाकाल लगातार जीवों को मार रहा है। जो प्रबल जीवन- इच्छा वाले हैं, उनका काल से संघर्ष निरन्तर चल रहा है। जीर्ण और दुर्बल झड़ रहे हैं। अपने व्यवहार की जड़ता को त्यागकर नित्य बदल रही परिस्थिति के अनुरूप अपने स्वयं को ढालकर निरन्तर गतिशील रहने वाला ही काल की मार से बच सकता है। परिवर्तन ही जीवन है ।
प्रश्न 7. आशय स्पष्ट कीजिए-(क) दुरंत प्राणधारा और सर्वव्यापक कालाग्नि का संघर्ष निरन्तर चल रहा है । मूर्ख समझते हैं कि जहाँ बने हैं, वहीं देर तक बने रहें तो कालदेवता की आँख बचा पाएँगे । भोले हैं वे । हिलते-डुलते रहो, स्थान बदलते रहो, आगे की ओर मुँह किए रहो तो कोड़े की मार से बच भी सकते हो। जमे कि मरे ।
उत्तर- (क) कालाग्नि सबको भस्म कर डालना चाहती है और मनुष्य उससे बचना और जीना चाहता है। कुछ लोग समझते हैं कि एक ही स्थान पर जमे रहने से काल देवता की निगाह से बच जाएँगे । वे अबोध और भोले हैं। निरन्तर गतिशील बने रहना और प्रगति पथ पर बढ़ना काल से बचने के लिए ज़रूरी है। चलते रहना ही जीवन है और रुकना मृत्यु है ।
(ख) उत्तर – सच्चा कवि हर प्रकार के मोह से मुक्त होता है । वह मस्तमौला तथा फक्कड़ होता है। संसार की श्रेष्ठ रचनाएँ ऐसे ही अवधूत कवियों ने ही रची हैं। जो आसक्त होकर अपने कवि कर्म की लाभ-हानि के गणित में उलझ जाता है, वह कवि नहीं हो सकता । लेखक की कवियों को सलाह है कि सच्चा कवि बनने के लिए उनको मस्तमौला और फक्कड़ बनना चाहिए ।
(ग) उत्तर – लेखक ने शिरीष के वृक्ष का वर्णन किया है, उसके फलों की विशेषता बताई है परन्तु ये अपने आप लक्ष्य नहीं हैं। ये तो किसी अन्य वस्तु को दिखाने के लिए उठी हुई अँगुली का संकेत है। हमें उस गूढ़ संकेत को समझ उसकी ओर बढ़ते रहना चाहिए ।
NCERT Solutions For Class 12 Hindi Aroh
पाठ के आसपास
प्रश्न 1. शिरीष के पुष्प को ‘शीतपुष्प’ भी कहा जाता है । ज्येष्ठ माह की प्रचंड गर्मी में फूलने वाले फूल को शीतपुष्प संज्ञा किस आधार पर दी गई होगी ?
उत्तर- ज्येष्ठ मास में भीषण गर्मी पड़ती है और लुएँ चलती हैं। सभी पेड़-पौधे इस ताप से सूख जाते हैं लेकिन शिरीष पर इसका प्रभाव नहीं होता वह फूलों से लदा रहता है। इससे लगता है कि शिरीष के पुष्प के अन्दर ही शीतलता होती है। इसी कारण उसे शीतपुष्प कहा गया होगा ।
प्रश्न 2. कोमल और कठोर दोनों भाव किस प्रकार गाँधीजी के व्यक्तित्व की विशेषता बन गए ?
उत्तर- गाँधी जी अँग्रेजी शासन के अन्याय, अत्याचार और शोषण का कठोरता से विरोध करते थे। इसके साथ ही अपने देश के दीन-दुर्बल मनुष्यों के प्रति उनका हृदय करुणा और कोमलता से भरा रहता था । एक दीन स्त्री को फटे हुए वस्त्रों में देखकर गाँधीजी ने वस्त्र त्याग दिए थे और केवल एक वस्त्र अपनी कटि (कमर) पर धारण करते थे इस प्रकार कोमलता और कठोरता दोनों ही भाव उनके व्यक्तित्व की विशेषता बन गए थे ।
प्रश्न 3. आजकल अन्तरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय फूलों की बहुत माँग है बहुत से किसान साग-सब्जी व अन्न उत्पादन छोड़ फूलों की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं इसी मुद्दे को विषय बनाते हुए वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।
उत्तर- संकेत भाषा के तीन रूप हैं- बोलना, लिखना और पढ़ना । वाद-विवाद से शुद्ध बोलने का अभ्यास बढ़ता प्रकार का आयोजन कर सकते हैं।
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