NCERT Solutions for Class 12 Hindi Chapter 12 बाज़ार दर्शन
RBSE Class 12 Hindi जीवन परिचय-जैनेन्द्र कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के कौड़ियागंज कस्बे में सन् 1905 में हुआ था। बचपन में आपको पिता की छाया मै बाँचत होना पड़ा। आपकी माता ने आपका पालन-पोषण किया। आपका मूल नाम आनन्दीलाल था। आपने हस्तिनापुर के जैन गुरुकुल ऋषि ब्रह्मचर्याश्रम में शिक्षा ग्रहण की।
सन् 1919 में मैट्रिक करने के बाद आपने काशी विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया किन्तु गाँधीजी के आह्वान पर अध्ययन छोड़कर स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। बाद में आपने स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन किया।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण आपको जेल यात्रा भी करनी पड़ी। आप जेल यात्रा के साथ साहित्य साधना करते रहे। हिन्दुस्तानी अकादमी से आप पुरस्कृत भी हुए। सन् 1988 में आपका देहावसान हो गया।
साहित्यिक परिचय-जैनेन्द्र कुमार ने कथा साहित्य के साथ हिन्दी गद्य को अन्य विधाओं पर भी लेखनी चलाई है। आप हिन्दी में मनोविश्लेषणात्मक कथा साहित्य की रचना के पुरोधा हैं। प्रेमचन्द ने आपको हिन्दी का गोर्की कहकर महिमा मण्डित किया था। जैनेन्द्र कुमार ने कहानियों के साथ ही उपन्यासों की भी रचना की है।
आपने विभिन्न विषयों पर महत्त्वपूर्ण निबन्ध लिखे हैं। अपने निबन्धों में वह विचारक तथा विश्लेषक के रूप में प्रकट हुए हैं। जैनेन्द्र की भाषा तत्सम शब्द प्रधान है।
उसमें प्रचलित शब्दों को उदारता से स्वीकार किया गया है। आवश्कता के अनुसार मुहावरों का प्रयोग करने से उनकी भाषा पुष्ट हुई है। जैनेन्द्र ने विचारात्मक, मनोविश्लेषणात्मक, वर्णनात्मक आदि शैलियों के साथ व्यंग्य शैली को भी अपनाया है।
कृतियाँ– जैनेन्द्र जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं
कहानी संग्रह– नीलम देश की राजकन्या, फाँसी, जय सन्धि, वातायन, एक रात दो चिड़िया, पाजेब उपन्यास-परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, जयवर्धन, मुक्तिबोध
निबन्ध संग्रह– पूर्वोदय, जड़ की बात, साहित्य का श्रेय और प्रेय, सोच-विचार, प्रश्न और प्रश्न, काम, प्रेम और परिवार, अकाल पुरुष गाँधी
संस्मरण-‘ये और थे।
अनुवाद– प्रेम में भगवान (कहानी) मंदाकिनी, पाप और प्रकाश (नाटक) ।
महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्याएँ
1. उनका आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं, स्त्रीत्व का प्रश्न है।
स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जो हूँ ? फिर भी सच, सच है और वह यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्त्व की महिमा सविशेष है। वह तत्त्व है मनीबैग, अर्थात् पैसे की गरमी या एनर्जी।
पैसा पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल असबाब मकान-कोठी तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘पर्चेजिंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर का रस है ।
लेकिन नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फिजूल सामान को फिजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘बाजार दर्शन’ से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं।
प्रसंग – लेखक के एक मित्र कुछ मामूली सा सामान लेने के लिए पत्नी के साथ गए थे। लौटे तो कई बण्डल हाथ में थे। लेखक के पूछने पर मित्र ने जो कारण बताया वही इस गद्यांश का विषय है।
व्याख्या– जब लेखक ने मित्र से पूछा कि इतना सारा सामान कैसे ले आए तो मित्र ने इसका कारण अपनी पत्नी को बताया। उनका आशय था कि ने इतना खर्च पत्नी के कारण हुआ था।
लेखक इस घटना में पत्नी का महत्व स्वीकार करता है। वह कहता है कि पत्नी के महत्व को वह भी मानता है। लेखक कहता है कि जब से पति-पत्नी का संबंध आरम्भ हुआ होगा तभी से परिवार में पत्नी की प्रमुखता रही है।
इसका कारण यह नहीं है कि पत्नी का व्यक्तित्व अधिक प्रभावशाली होता है। इसका कारण पत्नी का स्त्री होना है। स्त्रियों में धन जोड़ने और उसे खर्च करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।
पुरुष बहुधा अधिक पैसा खर्च करने और सामान जोड़ने की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों पर डाल देते हैं। लेखक कहता है कि कहा कुछ भी जाए पर अपव्यय के लिए लोग पत्नी की ओट लिया करते हैं।
इस प्रसंग के मूल में एक और भी बात महत्वपूर्ण है और वह है पति का बटुआ। जब मनोवैग रुपयों से भरा होता है तो खर्च करने की गर्मी बढ़ जाती है।
लेखक के अनुसार पैसा एक शक्ति है, लेकिन उसकी शक्ति सभी प्रमाणित होती है जब पैसे वाले के पास सुख-सुविधा के सभी सामान दिखाई दें। इसके बिना पैसे की पावर साबित नहीं होती। किसी व्यक्ति के पास पैसा है,
इसको जानने के लिए उसके बैंक खाते को देखना होगा लेकिन पैसे से खरीदे गए सामान, शानदार भवन आदि तो प्रत्यक्ष दिखाई दिया करते हैं। पैसे में वस्तुएँ खरीदने की जो शक्ति है उसका प्रयोग करने में ही उस शक्ति का आनंद छिपा हुआ है। पैसे की तिजोरियों में या बैंक खातों में डालकर उसका आनन्द नहीं लिया जा सकता।
लेखक कहता है कि सभी लोग खर्चीले होते हैं, यह सच नहीं है। अनेक लोग मन पर काबू रखकर धन जोड़ते हैं। वे व्यर्थ की वस्तुओं पर पैसा खर्च नहीं करते। ऐसे लोग अपने खर्च पर नियंत्रण रखते हैं अपनी बुद्धि और संयम द्वारा वे धन जोड़ते रहते हैं।
विशेष– (1) लेखक का संदेश है कि पैसा एक पावर है, लेकिन इस पावर का उपयोग मन पर संयम रखकर किया जाना चाहिए। अनुपयोगी वस्तुओं पर पैसा बहाना बुद्धिमानी नहीं है
(2) भाषा सरल है। मनीबैग, पावर एनर्जी आदि अंग्रेजी शब्दों का सहज भाव से प्रयोग हुआ है
(3) शैली व्यंग्यमयी है।
2. बाज़ार में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है पर जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी मर्यादा है। जेब भरी हो, और मन खाली हो, ऐसी हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा।
मन खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उस तक पहुँच जाएगा। कहीं हुई उस वक्त जेब भरी तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान जरूरी और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की सवारी उतरी कि पता चलता है
कि फँसी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है। थोड़ी देर को स्वाभिमान को जरूर सेंक मिल जाता है पर उससे अभिमान की गिल्टी की और खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के मुलायम स्पर्श के कारण क्या वह कम जकड़ होगी ?
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘बाजा दर्शन’ में लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं।
प्रसंग– लेखक के एक मित्र बाजार तो गए पर बिना कुछ खरीदे ही खाली हाथ लौट आए। लेखक द्वारा कारण पूछे जाने पर वह बोले कि बाजार में जाकर वह सबकुछ खरीद लेना चाहते थे, कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते थे। इसी कारण वह बाजार से कुछ भी नहीं खरीद पाए और खाली हाथ लौट आए।
व्याख्या– लेखक कहता है कि बाजार के आकर्षक रूप में एक जादू-सा होता है। यह जादू आँखों के रास्ते से मन को वश में किया करता है। यह जादू रूप का जादू है। बाजार का सजा-धजा रूप ही मनुष्य के मन को आकर्षित कर लेता है। लेखक कहता है, जैसे चुम्बक का आकर्षण केवल लोहे तक सीमित होता है,
उसी तरह यह रूप का आकर्षण भी केवल उन्हीं को अपनी ओर खींचता है जिनकी जेबें रुपयों से भरी हों और मन खाली होता है। मन में किसी खास वस्तु को ही खरीदने की इच्छा नहीं होती।
जब जेब और मन दोनों खाली [ होते हैं तब भी इस जादू का असर होता है। मन खाली है तो बाजार में उपस्थित हर वस्तु को खरीद लेने की इच्छा होती है।
अगर उस समय कहीं जेब भरी हो तो मन बेकाबू हो जाता है। व्यक्ति सब कुछ खरीद लेना चाहता है। उस समय उसे – हर एक सामान जरूरी और आरामदायक लगता है।
यह सब बाजार के जादू का ही असर हुआ करता है। जब यह जादू उतर जाता है तो मन भी रास्ते पर आ जाता है। तब समझ में आता है कि वस्तुओं की बहुतायत से आराम नहीं मिलता बल्कि आराम में बाधा ही पड़ती है।
इस भावना के आने पर व्यक्ति का स्वाभिमान थोड़ी देर के लिए संतोष अनुभव करता है, किन्तु उसके मन में छिपी अहंकार की भावना इससे और बढ़ जाती है। वह स्वयं को औरों से बड़ा आदमी समझने लगता है।
बाजार के जादू की जकड़, रेशमी डोरी की जकड़ की तरह होती है। रेशम का कोमल स्पर्श इस जकड़ को और भी प्रबल बना देता है।
विशेष– (1) बाजार का जादू क्या होता है, इसे लेखक ने अनेक रूपों में प्रस्तुत किया है। इस जादू का असर किन लोगों पर अधिक होता है, यह भी स्पष्ट किया है। (2) भाषा सरल है। वाक्य विन्यास व्याकरण के नियमों से मुक्त है किन्तु भाव व्यक्त करने में पूर्ण सफल है।
(3) शैली व्याख्यात्मक है।
3. यहाँ एक अंतर चीन्ह लेना बहुत जरूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं है कि वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य होने का अधिकार बस परमात्मा का है
जो सनातन भाव से संपूर्ण है। शेष सब अपूर्ण है। इससे मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ‘इच्छानिरोधस्तपः’ का ऐसा ही नकारात्मक अर्थ हो तो वह तप झूठ है। वैसे तप की राह रेगिस्तान को जाती होगी, मोक्ष की राह वह नहीं है।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘बाजार दर्शन’ से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं।
प्रसंग – लेखक ने बाजार के जादू से बचने का सरल उपाय भरा मन लेकर बाजार जाना बताया है। यहाँ लेखक ‘खाली मन’ का आशय समझा रहा है।
व्याख्या– लेखक कहता है कि यहाँ एक महत्वपूर्ण बात समझ लेना आवश्यक है। मन खाली रहना चाहिए, इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने मन को बंद कर ।। जब मन बन्द ही हो जाएगा तो उसके सारे क्रियाकलाप ही बंद हो जाएँगे। वह शून्य या निष्क्रिय हो जाएगा। शून्य तो केवल परमेश्वर का ही होना सम्भव है।
उसकी यह शून्यता सनातन है। सदा से विद्यमान है। यह शून्यता ही उसकी दिव्य संपूर्णता है। परमात्मा के अतिरिक्त इस सम्पूर्ण सृष्टि में जो कुछ भी है, वह सब अपूर्ण है। जो अपूर्ण है वह बंद नहीं हो सकता। अतः मन भी बंद नहीं हो सकता। कोई कह सकता है कि
वह अपनी सारी इच्छाओं को वश में कर लेगा और मन की गति को रोक लेगा। यह केवल एक भ्रम है, झूठ है। शास्त्र कहता है कि इच्छाओं का निरोध ही तप है। इस उक्ति को नकारात्मक रूप में लेना सही नहीं है। ऐसा तप, तप नहीं माना जा सकता। ऐसा तप मनुष्य को शून्य रेगिस्तान की ओर भले ले जाए
लेकिन वह उसे मुक्ति के मार्ग पर नहीं ले जा सकता। हठपूर्वक मन को बंद करना तप नहीं जड़ता की निशानी है।
विशेष– (1) लेखक ने इस अंश में खाली मन शब्द का अर्थ स्पष्ट करने की चेष्टा की है।
(2) भाषा को सरल बनाए रखने की पूर्ण चेष्टा करते हुए लेखक ने एक गम्भीर विषय को स्पष्ट करना चाहा है। (3) शैली में दुरूहता है। सामान्य व्यक्ति के लिए लेखक का अनुसरण कर पाना कठिन ही प्रतीत होगा।
4. उस बल को नाम जो दो; पर वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहाँ पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर जाति का तत्त्व है। लोग स्पिरिचुअल कहते हैं; आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखूँ और प्रतिपादन करूँ मुझे शब्द से सरोकार नहीं।
मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहाँ तृष्णा है, बटोर रखने की स्पृहा है, वहाँ उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना होगा
कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़ की विजय है।
सन्दर्भ-प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘बाजार दर्शन’ से लिया गया है। इसके लेखक जैनेन्द्र कुमार हैं।
प्रसंग – लेखक इस अंश में चूरन वाले भगत जी में एक विशिष्ट बल बता रहा है। इसी बल के बल पर भगत जी बाजार के आकर्षण, पैसे की व्यंग्य शक्ति और लोगों के रूखे व्यवहार का सामना कर पाते थे।
व्याख्या– जैनेन्द्र जी कहते हैं कि भगत जी के भीतर जो असामान्य बल है, उसे नाम कुछ भी दे दिया जाय परन्तु वह बल सांसारिक वैभव की चमक-दमक से बहुत ऊपर की चीज है। उस बल का स्तर बहुत ऊँचा है। लोगों ने उस बल को अनेक नामों से पुकारा है। कोई उसे स्प्रिचुल अर्थात आत्मबल बताता है।
कोई आत्मिक बल और कोई धर्मिक या नैतिक बल भी कह सकता है। लेखक विनम्रतापूर्वक व्यंग्य करते हुए कहता है कि उसमें इतनी योग्यता नहीं है कि वह इन सभी शब्दों के बीच अंतर बता सके। विद्वान लोग शब्द या नाम को लेकर बहस कर सकते हैं। लेकिन लेखक शास्त्रार्थ में पड़ना नहीं चाहता।
शब्द कोई भी हो, नाम कुछ भी दिया जाय लेकिन इतना निश्चित है कि उसका जन्म वहाँ नहीं हो सकता जहाँ मन में तृष्णा (धन की लालसा) भरी हो। वस्तुओं को बटोरकर जमा करते जाने की होड़ लगी है। लेकिन अगर कोई संचय की तृष्णा, वैभव की होड़ को ही सच्चा बल मानना चाहता है तो वह बहुत बड़े भ्रम में जी है रहा है।
यह बल नहीं बल्कि उस व्यक्ति की निर्बलता का प्रमाण है। जो आत्मिक बल से हीन है, वह दुर्बल मन वाला व्यक्ति ही धन की ओर ललकता है। लेखक के अनुसार धन बटोरने की लालसा मनुष्य पर धन की विजय है।
धन उसे कठपुतली की तरह नचाता है। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि यह चेतन (मनुष्य) पर जड़ (भौतिक संपत्ति) की विजय है। चेतन मनुष्य जड़ वस्तुओं के मोहपाश में जकड़ा पड़ा है।
विशेष– (1)
कबीर ने कहा था
साँई इतना दीजिए जामें कुटंम समाइ ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाइ।।
भगत जी का जीवन भी ऐसा ही था। वह छह आने की कमाई होते ही बिक्री बंद कर देते थे। बाकी बचे चूरन को बच्चों में बाँट दिया करते थे। आत्मसंतोष ही उनका सच्चा बल था, जिसके चलते वह संचय की तृष्णा और बाजार के जादू से बचे हुए थे।
(2) भाषा-शैली विषय के अनुरूप है।
पाठ्यपुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. बाज़ार का जादू चढ़ने और उतरने पर मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है ?
उत्तर– बाज़ार का जादू चढ़ने पर मनुष्य उसके आकर्षण में फँसकर अनावश्यक और अनुपयोगी चीजों को खरीदता जाता है। जब बाज़ार का जादू उतर जाता है तब वह समझता है कि उसके द्वारा बहुतायत में खरीदी गई फैंसी चीजों से आराम के बजाय उसे असुविधा ही हो रही है।
प्रश्न 2. बाज़ार में भगत जी के व्यक्तित्व का कौन-सा सशक्त पहलू उभरकर आता है ? क्या आपकी नजर में उनका आचरण समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है ?
उत्तर-भगत जी चूरन बेचते हैं- चौक बाज़ार से काला नमक तथा जीरा खरीदने वह वहाँ जाते हैं। वह अपनी आँखें खुली रखते हैं परन्तु सुन्दर चीजों को देखकर भौंचक्के नहीं होते। वह तुष्ट, मग्न और खुली आँख बाज़ार जाते हैं। बड़े-बड़े फैंसी स्टोरों पर भी वह नहीं रुकते ।
एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुककर जीरा और काला नमक खरीदते हैं। उनके लिए बाज़ार की उपयोगिता इतनी ही है। अब चाँदनी चौक का सारा आकर्षण उनके लिए अर्थहीन हो जाता है।
भगत जी के व्यक्तित्व का यह सशक्त पहलू समाज में शांति स्थापित करने में सहायक हो सकता है। यदि लोग अनावश्यक वस्तुओं को खरीदकर संग्रह न करें तो समाज में स्पर्द्धा नहीं बढ़ेगी। वस्तुओं का बनावटी अभाव नहीं होगा, चोर बाज़ारी रुकेगी, शोषण और उगी नहीं होगी, महँगाई पर नियंत्रण होगा। परिणामस्वरूप समाज में शान्ति बनी रहेगी।
प्रश्न 3. बाज़ारूपन से क्या तात्पर्य है ? किस प्रकार के व्यक्ति बाज़ार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाज़ार की सार्थकता किसमें है?
उत्तर– बाज़ारूपन का तात्पर्य है बाज़ार नामक संस्था को भ्रष्ट करना। बाज़ार का लक्ष्य मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है जो व्यक्ति अपनी जरूरत के बारे में भलीभाँति जानता है और उसकी पूर्ति बाज़ार से करता है, वह बाज़ार को सार्थकता प्रदान करता है।
लोगों की आवश्यकता को पूरा करना ही बाज़ार की सार्थकता है। पर्चेजिंग पावर का प्रदर्शन करके अनुपयोगी तथा अनावश्यक वस्तुओं को बहुतायत में खरीदने से बाज़ार के स्वरूप में जो विकार उत्पन्न होता है, वहीं बाज़ारूपन है।
प्रश्न 4. बाज़ार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता; वह देखता है सिर्फ उसकी क्रय शक्ति को इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं ?
उत्तर– बाज़ार एक ऐसी संस्था है जहाँ सभी मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जाते हैं। वहाँ किसी ग्राहक का धर्म, जाति, क्षेत्र तथा लिंग नहीं देखा जाता। बाज़ार में मनुष्य के पास एक ही चीज़ देखी जाती है, वह है उसकी क्रय शक्ति अर्थात् यह कि
वह कितना पैसा चीज़ों को खरीदने पर व्यय कर सकता है। जाति-धर्म-क्षेत्र और लिंग का भेद न रहने से बाज़ार सामाजिक समता का रचयिता कहा जा सकता है। लेकिन आर्थिक सामर्थ्य की दृष्टि से अमीर और गरीब ग्राहकों में यहाँ भी भेदभाव होता है।
प्रश्न 5. आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे प्रसंग का उल्लेख करें –
(क) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ।
(ख) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई।
उत्तर- पैसे की शक्ति और शक्तिहीनता से सम्बन्धित दो प्रसंग निम्नलिखित
(क) शक्ति का परिचायक- पैसे को शक्ति माना जाता है। उसके बल पर संसार में कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। मंदिरों में अधिक दान देने वालों को प्राथमिकता दी जाती है। अधिक पैसा चढ़ाने वालों को वी.आई.पी. दर्शनों की सुविधा है। उनको प्राथमिकता से तथा मूर्ति के निकट ले जाकर दर्शन कराए जाते हैं।
रिश्वत लेने में पकड़े जाने वाले रिश्वत देकर छूट जाते हैं। पिछले माह मेरे एक पड़ोसी बिजली चोरी में पकड़े गए थे, जेल जाने की नौबत थी परन्तु हुआ कुछ नहीं।
(ख) ऐसे भी उदाहरण हैं जहाँ पैसे की शक्ति काम नहीं आई। मुंशी प्रेमचन्द की ‘नमक का दारोगा’ कहानी इसका उदाहरण है। पंडित अलोपीदीन दारोगा बंशीधर की ईमानदारी के सामने असहाय हो गए थे।
एक बार मेरे कॉलेज के प्राचार्य ने अपने परीक्षा केन्द्र पर कुछ छात्रों को विशेष सुविधा देने के लिए प्रस्तुत नोटों से भरा बैग लौटा दिया था।
पाठ के आसपास
प्रश्न 1. ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ में बाज़ार जाने या न जाने के सन्दर्भ में मन की कई स्थितियों का जिक्र आया है । आप इन स्थितियों से जुड़े अपने अनुभवों का वर्णन कीजिए।
(क) मन खाली हो
(ख) मन खाली न हो
(ग) मन बंद हो
(घ) मन में नकार हो ।
उत्तर–
(क) मन खाली हो- जब अपनी आवश्यकता का स्पष्ट ज्ञान न होने पर बाज़ार के आकर्षणवश खरीदारी की जाती है, उस अवस्था को मन का खाली होना कहा गया है। जेब में खूब पैसा होने पर ही यह स्थिति आती है। निम्न और मध्यम वर्ग के लोगों के सामने ऐसी स्थिति कम आती है। मेरे सामने भी नहीं आई। यदि मुझे किसी वस्तु की जरूरत नहीं होती तो मैं बाजार नहीं जाता।
(ख) मन खाली न हो- मुझे जिस पुस्तक की आवश्यकता थी वह भरतपुर के किसी भी पुस्तक विक्रेता के पास उपलब्ध नहीं थी । परिणामस्वरूप मुझे दिल्ली जाना पड़ा की बजाय सीधे उस पुस्तक के प्रकाशक के पास पहुँचा और पुस्तक खरीद ली।
(ग) मन बंद हो – उन दिनों मैं फिजूलखर्ची से बच रहा था, जरूरत की चीजें भी नहीं खरीद रहा था। काम समाप्त करके घूमने निकला। बाज़ार से गुजर रहा था कि एक बहुत पुराना सहगल का गाना सुनाई पड़ा । सहगल मेरे प्रिय गायक हैं। सामने म्यूजिक सी. डी. की दुकान थी, परन्तु मैं चुपचाप आगे बढ़ गया।
(घ) मन में नकार हो- कुछ दिन पूर्व मेरे एक परम मित्र चल बसे थे मन बहुत व्याकुल था। कुछ भी अच्छा नहीं लगता था । शहर के बड़े बाजार से गुजरता था तो वहाँ सुसज्जित कोई चीज़ मुझे आकर्षित नहीं करती थी। मुझे किसी चीज की जरूरत महसूस नहीं हो रही थी।
प्रश्न 2. ‘बाज़ार दर्शन’ पाठ में किस प्रकार के ग्राहकों की बात हुई है ? आप स्वयं को किस श्रेणी का ग्राहक मानते / मानती हैं ?
उत्तर-‘बाज़ार दर्शन’ पाठ में दो प्रकार के ग्राहकों की बात हुई है। एक, वे जो जानते हैं कि उनको किस वस्तु की आवश्यकता है तथा दूसरे, वे जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं? मैं स्वयं को पहली श्रेणी का ग्राहक मानता हूँ। मेरे पास अनावश्यक धन नहीं है कि मैं बाज़ार से कुछ भी खरीदता फिरूँ। जब मुझे अपनी ज़रूरत की चीज़ खरीदने की बाध्यता होती है, मैं तभी बाज़ार जाता हूँ।
प्रश्न 3. आप बाज़ार की भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति से अवश्य परिचित होंगे। मॉल की संस्कृति और सामान्य बाज़ार और हाट की संस्कृति में आप क्या अंतर पाते हैं ? पर्चेजिंग पावर आपको किस तरह के बाजार में नजर आती है ?
उत्तर– मॉल की संस्कृति विदेश से आयातित उच्चवर्गीय संस्कृति है। सामान्य बाज़ार और हार की संस्कृति स्वदेशी है। मॉल में वस्तुओं का शानदार चकाचौंधपूर्ण प्रदर्शन होता है और वहाँ जाने वाले आँख के अन्धे और गाँठ के पूरे होते हैं। वे अपने स्टेट्स को प्रदर्शित करने के लिए वहाँ जाना पसन्द करते हैं।
स्वाभाविक ही है कि वहाँ पर पर्चेजिंग पावर साफ नजर आती है। स्पष्ट है कि दिनभर मजदूरी करके शाम को आटा और नमक खरीदने के लिए तो कोई वहाँ जाएगा नहीं। सामान्य बाज़ार साधारण जनता की जरूरतें पूरी करता है। हाट से उपयोगी तथा सस्ती चीजें खरीदी जा सकती हैं।